महान् साहित्य-शिल्पी गुरु गोविन्द सिंह

गुरु गोविन्द सिंह के विलक्षण व्यक्तित्व में सन्त, सेनानी और साहित्यकार का अद्भुत संगम था। उन्होंने केवल खालसा पंथ की स्थापना ही नहीं की, बल्कि उच्च कोटि के साहित्य का सृजन भी किया। उनके ‘दशम ग्रंथ' में संकलित रचनाएँ हिदी (ब्रज- भाषा) में तो है, लेकिन अधिकांशतः गुरुमुखी में लिपिबद्ध हैं। गुरु गोविन्द सिंह की साहित्यिक उपलब्धि की जानकारी कम ही लोगों को है।


गुरु गोविन्द सिंह के विलक्षण व्यक्तित्व में सन्त, सेनानी और साहित्यकार का अद्भुत संगम था। उन्होंने केवल खालसा पंथ की स्थापना ही नहीं की, बल्कि उच्च कोटि के साहित्य का सृजन भी किया। उनके काव्य की अंतःप्रेरणा भी युगीन परिस्थितियों से प्रभावित और प्रेरित थी। उनका उद्देश्य ऐसा साहित्य तैयार करना था जिसे पढ़ और सुनकर लोगों के दिलों में एकता का भाव जाग्रत् हो, उनमें न्यायोचित धर्म-कर्म की भावना विकसित हो। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरु गोविन्द सिंह ने पूर्ववर्ती गुरुओं की भक्ति-भावना में वीर रूपकों का संचार किया। इनके पूर्व सम्पूर्ण भक्ति-काव्य में ईश्वर के सृजन और पोषण के गुणों की प्रधानता थी। गुरु गोविन्द सिंह ने अपनी रचनाओं में ईश्वर के इस रूप के साथ उसके विनाशकारी रूप को भी चित्रित किया। उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए ऐसे विषयों का चयन किया जिसमें भक्ति और वीरता- दोनों की अभिव्यक्ति हो सके। उन्होंने पुराणों, रामायण और महाभारत से भारतीय महापुरुषों की गाथाओं के वीरतापूर्ण प्रेरक प्रसंगों पर आधारित रचनाएँ कीं और अपने आश्रित 52 कवियों से करवायीं।



गुरु गोविन्द सिंह का कार्यकाल हिंदीसाहित्य के इतिहास के काल-विभाजन के अनुसार रीतिकाल के अंतर्गत आता है। वह ऐसा समय था जब आश्रयप्राप्त कवि पारितोषिक और पारिश्रमिक के लिए लिखते थे। उस काल के प्रायः सभी कवि श्रृंगारपरक रचनाएँ करते और रीति-ग्रंथ लिखते थे। दो-एक को छोड़कर उस काल के किसी कवि की रचनाओं में युग की राजनीतिक स्थिति की झलक नहीं मिलती। लेकिन श्रृंगार और विलास के इस काल में भी गुरु गोविन्द सिंह ने प्रेरणादायक काव्य का सृजन किया और उसके माध्यम से लोगों में नवजागरण की ज्योति जलाने का प्रयास किया।


रीतिकाल के आश्रयप्राप्त कवियों में उनका महत्त्व बिलकुल अलग है। वह इस काल के एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनकी रचना के पीछे कोई सांसारिक लालसा नहीं है। न उन्हें किसी आश्रयदाता को प्रसन्न करना था और न ही कविता उनके जीविकोपार्जन का साधन थी। साहित्यसृजन में उनकी एकमात्र अभिलाषा, एकमात्र चाह धर्मस्थापना की थी।


अहिंदी-प्रदेशों में व्रज-भाषा का जो साहित्य सृजित हुआ, उसमें सिखगुरुओं की रचनाओं का अपना विशिष्ट स्थान है। गुरु गोविन्द सिंह उनमें प्रमुख हैं। उन्होंने अपना प्रायः समस्त साहित्य ही ब्रज-भाषा में लिखा। कुछेक रचनाओं को छोड़कर, जो पंजाबी या फारसी में हैं, उनका सम्पूर्ण साहित्य व्रज-भाषा में ही है। ‘ज़फ़रनामा' शीर्षक से औरंगजेब को लिखा उनका पत्र फारसी में है। उन्होंने अपनी विभिन्न रचनाओं द्वारा हिंदीसाहित्य को समृद्ध करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। उनकी समस्त रचनाएँ दशम ग्रंथ में संकलित हैं। उनकी 17 प्रामाणिक रचनाएँ हैं- 1. जप साहिब, 2. अकाल स्तुति, 3. विचित्र नाटक, 4. चण्डी चरित्र उक्ति विलास, 5. चण्डी चरित्र, 6. वार श्री भगवतीजी दी, 7. चौबीस अवतार, 8. मीर मेहदी, 9. ब्रह्मा अवतार, 10. रुद्र अवतार, 11. शास्त्र नाममाला, 12. ज्ञान प्रबोध, 13. पाख्यान चरित्र, 14. हजारे दो शब्द, 15. सवैये, 16. लैंतीस सवैये और 17. ज़फ़रनामा।


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