गणपति-उपासना की प्राचीनता

ॠग्वेद (2.31.1), यजुर्वेद (16.22-23) में गणपति का स्तवन है और गणेश अथर्वशीर्ष, वरदतापनीयोपनिषद्, गणपति उपनिषद्, श्रुति के अंग ही हैं। अग्निपुराण में अध्याय 71 तथा 313, गरुडपुराण में अध्याय 24 गणेश-विषयक हैं। गणेश उपपुराण और मुद्गल उपपुराण तथा गणेशसंहिता तो गाणपत्य सम्प्रदाय के उपपुराण हैं ही। इन सबमें भगवान् गणपति की अनेक कथाएँ दी हुई हैं।


रुद्र के मरुदादि असंख्य गण प्रसिद्ध हैं। इन गणों के नायक या पति को विनायक या गणपति कहते हैं। महाभारत (अनुशासनपर्व, अध्याय 151) में गणेश्वरों और विनायकों का स्तुति से प्रसन्न हो जाना और पातकों से रक्षा करना वर्णित है। इस नाते गजानन और षडानन- दोनों गणाधीश हैं और भगवान् शंकर के पुत्र हैं। परन्तु गजानन तो परात्पर ब्रह्म के अवतार माने जाते हैं, और परात्पर ब्रह्म का नाम ‘महागणाधिपति' कहा गया है। भाव यह है कि महागणाधिपति ने ही अपनी इच्छा से अनन्त विश्व और प्रत्येक विश्व में अनन्त ब्रह्माण्ड रचे और हर ब्रह्माण्ड में अपने अंश से त्रिमूर्ति प्रकट की। इसी दृष्टि से सभी सम्प्रदायों के हिंदुओं में सभी मंगलकार्यों के आरम्भ में गौरी-गणेश की पूजा सर्वप्रथम होती है। यात्रा के आरम्भ में गौरी-गणेश का स्मरण किया जाता है, पुस्तक, पत्र, बही आदि किसी लेख के आरम्भ में पहले श्री गणेशाय नमः लिखने की पुरानी प्रथा चली आ रही है। महाराष्ट्र में गणपति-पूजा भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को बड़े समारोह से होती है और गणेश चतुर्थी के व्रत तो सारे भारत में मान्य हैं। गणपति- विनायक के मन्दिर भी भारतव्यापी हैं और गणेशजी आदि देव और अनादि देव माने जाते हैं।



इन सब बातों से स्पष्ट होता है कि किसी समय गणपति की उपासना भारत में व्यापक रही होगी।


मानवगृह्यसूत्र (2.14) में ‘शालकटंकट', 'कूष्माण्डराजपुत्र', ‘उस्मित' और 'देवयजन' नाम के चार विनायकों की चर्चा है। ये विनायक विघ्न डालते हैं। जिन्हें ये सताते हैं, वे व्यर्थ के काम करते हैं, जैसे- मिट्टी के ढेले पीसना, घास काटना, अपने शरीर पर लिखना आदि। सपने में उन्हें जल, मुण्डित सिरवाले मनुष्य, ऊँट, सूअर आदि दीखते हैं, हवा में उड़ते हैं और चलते हैं तो कोई पीछा करता दीखता है। विनायकों के सताए, योग्य होते हुए भी मनचाहा काम नहीं कर सकते। इन वैनायिकी तापों से बचने के उपाय भी सूत्रों में बताए गए हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति के पहले अध्याय में यही बातें अधिक विस्तार से दी गई हैं। इस स्मृति के अनुसार ब्रह्मा और रुद्र ने विनायक को गणाधिप बनाया और इनके मित, सम्मित, शाल, कटंकट, कूष्माण्ड और राजपुत्र- ये छः नाम हैं। सृष्टि के आरम्भ में उसके विस्तार के लिए, क्रिया के साथ प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिए, सफलता के अर्थ विशेष प्रयत्न की ओर उत्कट प्रेरणा के लिए, प्रवृत्तिमार्ग में विशेष उत्तेजना और प्रेरणा पैदा करने करने के लिए, मरुत्, रुद्र आदि देवताओं की सृष्टि हुई और इनके गणों के स्वामी बनने के लिए महागणाधिपति परमात्मा ने विनायक का अवतार धारण किया और गणपति हुए। इस निरन्तर के विघ्न से बचने के लिए हर काम के प्रारम्भ में गणपति का स्मरण, ध्यान, पूजन आदि करना आवश्यक हुआ कि विघ्न करने के बदले कार्य की सिद्धि में सहायता पहुँचायें।


शंकरदिग्विजय में आनन्दगिरि ने तथा धनपति ने माधव के दिग्विजय के भाष्य में गाणपत्य सम्प्रदाय की छः शाखाओं का वर्णन किया है


1. महागणाधिपति के उपासक उन्हें महाब्रह्मा या स्रष्टा मानते हैं। प्रलय के बाद महागणपति ही रह जाते हैं और आरम्भ में वे ही फिर से सृष्टि करते हैं।


2. गणपति कुमारसम्प्रदायवाले हरिद्रा गणपति को पूजते हैं। वे भी अपने उपास्य देव को परब्रह्म परमात्मा ही माते हैं और ऋग्वेद के दूसरे मण्डल के 23वें सूक्त को प्रमाण मानते हैं।


3. हेरम्बसुत-सम्प्रदायवाले उच्छिष्ट गणपति की उपासना करते हैं। ये वाममार्गी हैं। इस सम्प्रदाय में वर्णाश्रमधर्म का बन्धन नहीं है। विवाहसंस्कार का भी बन्धन नहीं है। पञ्चमकार के वीभत्स रूप का इस सम्प्रदाय में प्रचार है। सन्ध्या-वन्दनादि भी आवश्यक नहीं है। । 


 4. 5. 6. नवनीत, स्वर्ण और सन्तान- ये तीनों गणपतियों के उपासक अपने को श्रुतिमार्गी कहते हैं और गणपति को सर्वोपरि परात्पर ब्रह्म के रूप में ही मानते हैं। वे विश्व को भगवान् गणेश का प्रतीक मानते हैं और सभी देवताओं को उनका अंश मानते हैं। 


परन्तु उपर्युक्त सम्प्रदायों के गाणपत्य देखने में नहीं आते। इनका प्रचार सम्प्रदाय के रूप में आजकल कहीं देखने-सुनने में नहीं आता। अवश्य ये बहुत प्राचीन समय में प्रचलित रहे होंगे।