इसलिए जैन भी हिन्दु है।

हिदुस्थान एक लोकतांत्रिक देश है। संविधान में उसे 'सेक्युलर स्टेट' माना गया है। इसका अनुवाद किया गया ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य'। इस ‘धर्मनिरपेक्ष' शब्द ने पुरानी पीढ़ी के मन में एक भ्रांति को जन्म दिया। लोकतंत्र में राज्य का शासन किसी संप्रदाय विशेष के हाथ में नहीं होता। वह संप्रदायातीत अथवा असांप्रदायिक होता है। इस उदात्त भावना को ‘धर्मनिरपेक्ष' शब्द अभिव्यक्ति नहीं दे सकता, फलतः भ्रांति पैदा हो गयी। आचार्य तुलसी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी से ‘धर्मनिरपेक्ष' शब्द को बदलने की बात कही और सुझाव दिया कि “धर्मनिरपेक्ष' के स्थान पर ‘संप्रदाय-निरपेक्ष' अथवा 'पंथनिरपेक्ष' शब्द का प्रयोग किया जाए। बाद में जो संविधान का हिंदी-अनुवाद मुद्रित हुआ है, उसमें सेकुलर का अर्थ 'पंथनिरपेक्ष' किया गया है।



संप्रदाय-निरपेक्ष होने का तात्पर्य धर्मनिरपेक्ष, धर्महीन अथवा धर्मविरोधी होना नहीं है। कोई भी राष्ट्र जब किसी भी धर्म या संप्रदाय के द्वारा शासित हुआ है, तब जनता के साथ न्याय नहीं हो सका, अपने प्रतिपक्षी मतों के साथ अन्याय हुआ। इसीलिए राजनीति किसी संप्रदाय-विशेष की अवधारणा से संचालित नहीं होनी चाहिए। राष्ट्रवाचक है 'हिंदू' : आज जिस भूखण्ड का नाम हिंदुस्थान है, प्राचीन काल में उसका नाम भारत या भारतवर्ष था। भरत के नाम पर उसका नामकरण ‘भारत किया गया। पारस (वर्तमान ईरान) आदि मध्य एशियाई देशों के संपर्क के कारण इसका नाम हिंदू देश प्रचलित हुआ। पारसी सम्राट् दारा महान् (छठी शताब्दी ई.पू.) के अभिलेखों में सिंधु-प्रदेशों के लिए 'हिंदू' शब्द का प्रयोग मिलता है, जैसे राजस्थान आदि कुछ प्रदेशों में 'स' का उच्चारण ‘ह' किया जाता है, वैसे ही प्राचीन फ़ारसी बोली में भी ‘स' का उच्चारण ‘ह' होता था। पारसी लोग ‘सप्तसिंधु' का उच्चारण ‘हप्तहिंदू' करते थे। मूल प्रकृति के अनुसार 'हिंदू' शब्द देश या राष्ट्र का वाचक है, धर्म का नहीं।


भारतवर्ष में चिरकाल से धर्म की दो धाराएँ प्रवाहित रहीं- श्रमण और वैदिक। श्रमण परम्परा का तंत्र क्षत्रियों के हाथ में था। वैदिक परंपरा का सूत्रधार ब्राह्मण वर्ग था। सांख्य, जैन, बौद्ध और आजीवक- ये सब श्रमण परंपरा के धर्म हैं। मीमांसा, वेदांत- ये वैदिक परंपरा के धर्म हैं। हिंदू नाम का कोई भी प्राचीन धर्म नहीं है। मुसलमानों के आगमन के पश्चात् हिंदू और मुसलमान, पक्ष और प्रतिपक्ष बन गये। प्राचीन काल में श्रमण और ब्राह्मण, पक्ष और प्रतिपक्ष में प्रतिष्ठित थे। संस्कृत वैयाकरणों ने श्रमण और ब्राह्मण का नित्य विरोधी के रूप में उल्लेख किया है। आधुनिक काल में श्रमण और ब्राह्मण का विरोध मंद हो गया। एक श्रमण, ब्राह्मण धर्म में दीक्षित हो जाता और एक ब्राह्मण श्रमण धर्म में दीक्षित हो जाता, उससे कोई जाति-परिवर्तन नहीं होता। हिंदू औरमुसलमान में कोरा धर्म-संप्रदाय का भेद ही नहीं है, जातिभेद भी है। जातिभेद के आधार पर 'हिंदू' और 'मुसलमान' शब्द प्रचलित हुआ। उसका प्रभाव धर्म की धारणा पर भी पड़ा। फलतः ‘हिंदू धर्म' - जैसा शब्द भी प्रचलित हो गया।


क्या जैन हिंदू हैं?: आधुनिक युग में धर्म का वर्गीकरण सनातन, वैष्णव, जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त आदि रूपों में रहा। हिंदू-धर्म की व्याख्या वैदिक धर्म के रूप में की गई। 'हिंदू' शब्द यदि राष्ट्र और जाति का वाचक रहे तो जैन, बौद्ध आदि सभी 'हिंदू' शब्द के द्वारा वाच्य हो सकते हैं। किसी के सामने कोई उलझन नहीं होनी चाहिए। आचार्य तुलसी ने कई बार कहा था कि हिंदुस्थान में रहनेवाला प्रत्येक नागरिक हिंदू है। धर्म या मजहब की दृष्टि से भले वह ईसाई हो, इस्लाम का अनुयायी हो, पारसी अथवा और कोई भी हो। 'हिंदू-धर्म', इस शब्द ने हिंदुत्व को संकुचित बना दिया। केवल मुसलमान, ईसाई और पारसी ही हिंदुत्व से पृथक् नहीं हुए हैं, जैन, बौद्ध और सिख भी उससे पृथक् हुए हैं। पूना के कुछ पण्डितों ने आचार्यश्री तुलसी से पूछा- जैन हिंदू हैं। या नहीं? आचार्यश्री ने उत्तर में कहा- यदि आप हिंदू का अर्थ वैदिक परंपरा का अनुयायी मानते हैं तो तो जैन हिंदू नहीं हैं और यदि हिंदू का अर्थ राष्ट्रीयता से है तो जैन हिंदू हैं।


'हिंदू' शब्द का व्यापक अर्थ : 'हिंदू' शब्द व्यापक अर्थ में भारत का पर्यायवाची है। सिंधु नदी से उपलक्षित होने के कारण यह देश हिंदू देश कहलाया और इसी आधार पर इसका नाम 'हिंदुस्थान' हुआ।


इस व्यापक संदर्भ में हिंदुस्थान का प्रत्येक नागरिक 'हिंदू' कहलाए, इसमें कोई प्रतिवाद नहीं होना चाहिए। विश्व के अनेक देशों में हिंदू रहते हैं। उनमें कुछ हिंदुस्थान के नागरिक हैं और कुछ अन्य राष्ट्रों के नागरिक। इसलिए हिंदू एक जाति भी है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता।


सबसे अच्छा है, हम 'हिंदू' शब्द को राष्ट्र के साथ अनुबंधित करें। उससे आगे बढ़ना चाहें तो उसे जाति के साथ अनुबंधित करें। इससे आगे न बढ़े। वैचारिक असहिष्णुता ही सांप्रदायिक झगड़े उत्पन्न करती है, इसलिए सर्वधर्मसहिष्णुता का पाठ हमारे लिए अधिक श्रेयस्कर हो सकता है।


जैन-दर्शन में निक्षेप-पद्धति का महत्त्वपूर्ण स्थान है, उसका तात्पर्यार्थ हैशब्द-प्रयोग का वैज्ञानिक दृष्टिकोण। हमारी सफलता और विफलता, शब्द और अर्थ की परिक्रमा कर रही है, इसलिए शब्दप्रयोग के प्रति हमारी जागरुकता नितांत स्पृहणीय है।


आगे और---