काटनीट शैव सम्प्रदाय और प्रत्यभिज्ञा दर्शन

काश्मीर शैव सम्प्रदायकोस्पन्ददर्शन, त्रिकू दर्शन और षड्र्धदर्शन नाम से भी अभिहित गयी। इसका कारण दर्शन में ईश्वर और जीव तथा ईश्वर और जगत की अद्वैतता तथा अभेदता का निरूपण होना है। इस दर्शन के प्रसार में अभिनवगुप्त का योगदान प्रशंसनीय रहा है।



अति प्राचीन काल से ही काश्मीर उत्तर भारत के सांस्कृतिक क्षेत्र के अंतर्गत रहा है और उत्तर भारत में जो-जो धार्मिक आन्दोलन हुए, उन सबका प्रभाव अनिवार्य रूप से काश्मीर पर भी पड़ा। इसके अतिरिक्त वसुगुप्त के समय तक, जो आठवीं शती में हुए थे, काश्मीर में शैवागमों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और उन्हें अति प्राचीन माना जाता था। अतः काश्मीर में उनका प्रचार बहुत पहले से रहा होगा। प्रारम्भ में काश्मीर में भी इन आगमों की व्यवस्था उसी प्रकार से की जाती थी जिस प्रकार अन्यत्र। वसुगुप्त ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि इनकी व्याख्या इसी प्रकार की जाती थी। फिर हमें छठी या सातवीं शती का एक प्राचीन ग्रंथ भी मिलता है, जिसका नाम ‘विरुपाक्षपञ्चाशिका है और इसमें शैव मत के दार्शनिक पक्ष का सारांशतः विवरण उसी प्रकार किया गया है जिस प्रकार आगम-ग्रंथों में। परन्तु इसी समय काश्मीर में एक नयी विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ, जिसके प्रवर्तक आगमिक सिद्धान्तों की अधिक शुद्ध अद्वैतवादी ढंग पर व्याख्या करना चाहते थे। इस विचारधारा का जन्म कैसे और किस प्रभाव से हुआ, यह नहीं कहा जा सकता। सम्भव है कि काश्मीर में पहले से ही कोई विशुद्धाद्वैतवादी सम्प्रदाय रहा हो, और उसके कुछ योग्य विद्वान् अनुयायियों ने शैवागमों की अपने ढंग से व्याख्या करने का उसी प्रकार प्रयास किया हो जिस प्रकार शंकर ने समस्त उपनिषदों में विशुद्ध अद्वैत ढूँढ़ने का प्रयास किया था। इनमें से एक विद्वान् तो वसुगुप्त ही थे। (काश्मीर में शैव मत का यह वर्णन श्री चट्टोपाध्याय की काश्मीरी शैव-धर्म विषयक पुस्तक पर आधारित है) काश्मीर में इस विद्वान् के जो अर्ध-ऐतिहासिक वृत्तांत मिलते हैं, उनसे इतना तो पता चलता ही है कि उन्होंने स्वयं कुछ सूत्र रचे थे जो ‘शिवसूत्र' कहलाते थे। या हो सकता है कि यह सूत्र उन्होंने अपने किसी गुरु से सीखा हो। परन्तु उन्होंने इसका प्रचार अवश्य किया। इन सूत्रों में उन्होंने शैवमत के दार्शनिक सिद्धान्तों की विशुद्ध अद्वैतवाद के अनुसार व्याख्या की और इस प्रकार अद्वैतवादी शैव सिद्धान्त की नींव डाली जो कालान्तर में काश्मीरी शैव मत कहलाया। यह शिवसूत्र उन सूत्रों से सर्वथा भिन्न है जो आजकल शिवसूत्रों के नाम से प्रसिद्ध है और जिनका रचयिता अज्ञात है। वसुगुप्त के सिद्धान्तों का और अधिक प्रचार उनके शिष्य कल्लट ने अपनी टीकाओं द्वारा किया, जिनमें एक अब स्पन्दसूत्र अथवा स्पन्दकारिका के नाम से प्रसिद्ध है।


वसुगुप्त और कल्लट- दोनों ने ही इस नये दर्शन की रूपरेखामात्र निर्धारित की। उन्होंने तर्को द्वारा इसकी विस्तृत विवेचना नहीं की। यह काम सोमानन्द ने उठाया जो कल्लट के समकालीन थे। हो सकता है कि वह वसुगुप्त के शिष्य रहे हों। सोमानन्द ने ‘शिवदृष्टि' नामक प्रख्यात ग्रंथ की रचना की जिसमें उन्होंने वसुगुप्त और कल्लट द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों की पूर्ण विवेचना की और उनको एक निश्चित दर्शन का रूप दिया। सोमानन्द के बाद इस काम को उनके शिष्य उत्पल ने जारी रखा। इन्होंने प्रत्यभिज्ञा सूत्रों की रचना की और उनके द्वारा इस ‘प्रत्यभिज्ञा' शब्द के प्रयोग करने पर ही इस दर्शन का नाम ‘प्रत्यभिज्ञादर्शन' पड़ गया। ‘सर्वदर्शनसंग्रह' में इसके इसी नाम का उल्लेख किया गया है।


लगभग इसी समय दक्षिण भारत में शंकराचार्य हुए। इनके विशुद्ध अद्वैत का प्रचार करने से काश्मीर के इस नये अद्वैतवादी शैव मत को बहुत बल मिला और उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी। शंकर के काश्मीर जाने का भी परम्परागत वृत्तान्त मिलता है। सम्भव है कि वह वास्तव में वहाँ गए हों और एक ओर तो बौद्ध तथा जैन मतों के उन्मूलन करने में (जो सातवीं और आठवीं शती में काश्मीर में बहुत प्रबल थे) और दूसरी ओर वहाँ अद्वैतवाद को दृढ़ रूप से स्थापित करने में सहायक हुए हों। कुछ भी हो, शंकर के समय से काश्मीर में अद्वैतवादी शैव सिद्धान्त सर्वमान्य हो गया और अनेक प्रख्यात विद्वान् उसके अनुयायी हो गये। इनमें सबसे बड़े उत्पल के शिष्य अभिनवगुप्त थे। उन्होंने ‘परमार्थसार' नामक ग्रंथ की रचना की, और तत्पश्चात् उत्पल के प्रत्यभिज्ञासूत्र' और अभिनवगुप्त का ‘परमार्थसार'- ये काश्मीरी शैव सिद्धान्त के प्रामाणिक ग्रंथ माने जाने लगे। इन्हीं दो ग्रंथों में काश्मीर में शैव सिद्धान्त का पूर्ण विकास होता है। अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमराज ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘शिवसूत्रविमर्शिनी में वसुगुप्त के शिवसूत्रों की व्याख्या की। क्षेमराज ने अन्य भी अनेक प्रामाणिक ग्रंथ लिखे जिनमें उन्होंने प्रत्यभिज्ञादर्शन की विस्तृत व्याख्या की। इनमें से प्रत्यभिज्ञाहृदय, स्पन्दसन्दोह और स्पन्दनिर्णय प्रमुख हैं।


क्षेमराज के बाद प्रत्यभिज्ञादर्शन का विकास प्रधानतः उपर्युक्त ग्रंथों पर टीकाओं द्वारा ही हुआ। इन टीकाकारों में सबसे बड़े योगराज हुए हैं। यह भी अभिनवगुप्त के ही शिष्य थे। इन्होंने अभिनवगुप्त के परमार्थसार पर टीका लिखी थी। कुछ काल बाद बारहवीं शती में जयरथ ने अभिनवगुप्त के तंत्रालोक पर टीका लिखी। योगराज के बाद तेरहवीं शती के अन्त तक, काश्मीरी शैव मत के इतिहास में कोई बड़ा विद्वान् नहीं हुआ।


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