मानव-जिज्ञासाएँ, संत और पंथ

धर्म, पंथ- ये सब विचारधाराएँ हैं और संत उन पर चलनेवाली जिज्ञासु आत्माएँ हैं। जो भी विश्वास दिला सके हमें कि परमात्मा अपने भीतर में है, जब कोई अपना सर्वत्र खोकर और सम्पूर्ण रूप से वह आत्मा जब परमात्मा में समर्पित हो, उसे महसूस करती है, उसे अनुभव करती है, यह किसी व्यक्ति का अपना कमाया हुआ धन है, कर्म है और उस संत का मार्गदर्शन है, वही सच्चा संत है।


कबीरदास के अनुसार संत मानव शरीर में वे पवित्र आत्माएँ हैं, जिसका कोई शत्रु नहीं है, जो निष्काम है, ईश्वर के निकट है और जो मोह और विषयों से पृथक् रहता है। शास्त्रों में कहा गया है कि नदियाँ बहती नहीं अपने वास्ते, पेड़ फल न दें अपने वास्ते, मेघ सावन न बरसाये अपने वास्ते, ऐसे संत न जिए अपने वास्ते, बस परहित के वास्ते जिए जाये! ये जिज्ञासु पवित्र आत्माएँ खोजती ईश्वर को, खोजकर संत बन कीर्ति प्राप्तकर अपना अनुभव, अपनी विचारधारा बाँटतीं, जन-जन के साथ जनहित में परोपकार करती हैं। उनकी विचारधारा पंथ कहलाती है, जिज्ञासु जन जो प्रभु-मिलन, भक्ति के प्यासे हैं, जो उनकी विचारधारा से सहमत होते हैं, अपने अनुभव के आधार पर, उनके पंथ का अनुसरण करते हैं। धर्म की बात करें तो कोई फर्क नहीं पड़ता चाहे कोई आस्तिक हो या नास्तिक, ज्यादातर सभी जन्म से ही किसी-न-किसी धर्म को माननेवाले परिवार में जन्म लेते हैं और वही उनका भी धर्म बन जाता है। पंथ को चुनने में किसी का अपना मत हो सकता है, धर्म को चुनने में ऐसा नहीं होता है। यहाँ सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा होता है कि क्यों सामान्यजन को धर्म के अलावा ज़रूरत पड़ती है संत और पंथ की? मानव पूर्णरूपेण सक्षम है जीवनयापन हेतु, सारे सुविधा के साधन जुटा सकता है, फिर भी क्यों महामूर्ख कहलाता है? कभी ढोंगी संतों की बात मानकर अंधविश्वास रखकर, कभी महान् संतों की बात न मानकर जीवन में धक्के खाकर! खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, धन-छत होते हुए भी ऐसी कौन-सी कमी रह जाती है मानव-जीवन में जो उसे कुछ और पाने की ओर लालायित करती है, कौन-सी तृष्णा उसे संत-पंथ की ओर धकेलती है? वह है मानव जन्म में जन्मे। मानव की जिज्ञासु प्रवृत्ति, जो उसकी आध्यात्मिक भूख को बढ़ाती है, जो मानव को संत बनने की ओर प्रेरित करती है।



को संत बनने की ओर प्रेरित करती है। संतों का मानव-जन्म में मानव जाति के प्रति कर्म क्या है? संत यानि गुरु जो भक्ति, ज्ञान, आध्यात्मिक मार्ग पर चले, खोजकर अपने स्वयं के अनुभव के आधार पर भेद बताते हैं, समझाते हैं, मार्गदर्शन करते हैं, प्रेरणा देते हैं, ईश्वर को पाने की राह दिखाते । किसी ने यह भेद बताया और समझाया। कि ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की है, विष्णु पालनहार हैं, शिवजी सृष्टि का प्रत्यावर्तन करते हैं। किसी ज्ञानी ने कहा कि क्वांटम फिजिक्स में बिग बैंग थ्योरी और एवोल्यूशन के सारे राज छिपे हैं, सृष्टि की रचना इस आधार पर हुई है। किसी ने कहा कि यह सृष्टि अल्लाह ने बनाई है। किसी ने कहा आदम, ईव और सेव फल की कहानी मानव का जन्म हुआ, किसी ने कहा वानरों से। यह निर्णय कौन लेगा, कौन-सा तर्क है, कौन-सा तथ्य है? किसी ने कहा कि सबका मालिक एक है, यह निश्चित कैसे हो कि यह तर्क है, तथ्य है या प्रामाणिक है? सभी कहते हैं वे ही सही हैं। जिसे जो उचित लगता है, वह जन्म से, कर्म से, अनुभव से, विचारों से, धर्म से उस विचारधारा में शामिल हो जाता है, जो पंथ कहलाता है। यदि सभी पंथों की मान ली जाए कि वे सही हैं तो क्या यह मान लिया जाये सबकी दुनिया अलग है, हर धर्म-पंथ की दुनिया और उसकी उत्पत्ति अलग- अलग है? फिर क्यों हर धर्म-पंथ में जन्मा शिशु नौ माह में ही माँ की गर्भ से जन्म लेता है, सबकी दो आँखें और खून लाल है, सभी साँस लेते हैं। तो सही कौन है? जल, नभ, वायु, धरती, अग्नि, वनस्पति, घर, दवा, दुवा, प्रार्थना, सत्य, करुणा, मानवता, तूफान, नदियाँ, समन्दर, पहाड़, बादल, जानवर, पक्षी किसी एक पंथ के नहीं, यह सृष्टि एक ही है जो सबकी है तो सबकी दुनिया अलग कहाँ हुई।


क्यों कबीर ने एक मुस्लिम परिवार में पलकर भी दोहे रच डाले? क्या हिंदू परिवार में जन्मे नानकजी ने उनके पंथ को माननेवाले अनुयायियों से अगल धर्म की बात की? क्यों एक हिंदू राजा गौतम बुद्ध को लाखों-करोड़ों चीनी-जापानी पूजते हैं। उनका ध्येय क्या था, उद्देश्य क्या था? उनका अधिकार क्या था, क्यों उस वक्त, वक्त ने उन्हें ही चुना? वे मानव थे मानव जन्म में और मानवता ही उनका सबसे बड़ा कर्म था। आद्य शंकराचार्य, रामानुज, महावीर, गौतम बुद्ध, मुहम्मद, ईसामसीह, साईं बाबा, आचार्य रजनीश, सिस्टर शिवानी- सभी ने अपने-अपने विचार दिये, अपना-अपना पंथ चलाया, तर्कवितर्क किया, संत हुए, महागुरु हुए, ज्ञान दिया, सही राह दिखाई, मानव-जीवन प्रकाशवान् किया। कुछ सच्चे संत, कुछ ढोंगी। सभी पंथ, सभी धर्म हिंदू, इस्लाम, सिख, ईसाई, यहूदी, जैन, बौद्ध- सभी महान्, सभी श्रेष्ठ। न ही कोई सम्पूर्ण सच्चा, न ही कोई पूर्ण झूठा। सभी के मार्ग अलगअलग, पर मंजिल एक, लक्ष्य एक फिर कमी कहाँ रह गयी? सदियों से कई पंथों ने दावा किया, तर्क-वितर्क किया फिर भी क्या पूरी तरह से दावा करने में सक्षम हैंकि उन्होंने परमात्मा को खोज लिया है? मान लिया जाए कि खोज भी लिया है, फिर भी तो सदियों से जिज्ञासाएँ शांत नहीं हुई हैं, खोज खत्म नहीं हुई है, सवाल तो वहीं-का-वहीं है? ग्लोबल वर्ल्ड में हिंदीभाषी अंग्रेजी में प्रवचन देता है, अंग्रेजीभाषी हिंदी में प्रवचन देता है, मत बदल गए हैं, व्यवहार बदल गए हैं, जिज्ञासाएँ फिर भी नहीं बदली हैं।


विश्व को संचालत करनेवाली एक महाशक्ति है, इससे कोई धर्म, कोई पंथ, कोई संत इनकार नहीं करता। कहते हैंपरमात्मा कण-कण में है, क्षण-क्षण में है, फिर इतने रहस्य क्यों, उन्हें पाना क्या अति सरल है या बहुत जटिल है? मन्दिर में, मस्जिद में, गुरुद्वारे में या किसी गिर्जाघर में कहाँ है? यदि सबकुछ पता है, फिर भी हर धर्म, हर पंथ का परोसा इतना फीका क्यों है, उसमें नमक इतना कम क्यों है, जब सारी धाराएँ मिलती उसी समुन्दर में हैं, उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं रह जाता, उसी खारेपन में सभी घुल-मिल जाती हैं। धर्म, पंथ- ये सब विचारधाराएँ हैं और संत उन पर चलनेवाली जिज्ञासु आत्माएँ हैं। जो भी विश्वास दिला सके हमें कि परमात्मा अपने भीतर में है, जब कोई अपना सर्वत्र खोकर और सम्पूर्ण रूप से वह आत्मा जब परमात्मा में समर्पित हो, उसे महसूस करती है, उसे अनुभव करती है, यह किसी व्यक्ति का अपना कमाया हुआ धन है, कर्म है और उस संत का मार्गदर्शन है, वही सच्चा संत है, उसका मार्ग सच्चा पंथ है और जो धर्म हम मानवता के लिए धारण कर सके, वही सच्चा धर्म है। सवाल वही है, खोज फिर भी जारी है।