महंगाई के बीच सस्ती दुआएँ

मनुष्य की दयालुता, उदारवादिता अनजाने में अर्कमण्यता को बढ़ाती है। इसलिए हेदयालु माताओ, बहनो! इन बहरूपिए साधु-संन्यासियों का चक्कर छोड़कर अपने पति व बच्चों की रक्षा-सुरक्षा के लिए स्वयं प्रभु से प्रार्थना करें और पूर्ण विश्वास रखें कि धन के बदले सुरक्षा-कवच देनेवाले भिक्षार्थियों-संन्यासियों की अपेक्षा वह आपकी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे। इसलिये हे दाताओ, शारीरिक रूप से असमर्थ व्यक्तियों की अतिरिक्त सोच-समझ तथा जाँच-परखकर ही दान दें, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि दूसरों की निर्धनता दूर करते-करते आप स्वयं कंगाल हो जाएँ।


रहिमन वे नर मरि चुके, जे कछु मांगन जाइ। उनसे पहिले वे मुऐ, जिन मुख निकसति नाइ॥


रहीमजी की विचारों का यदि अनुसरण किया जाए तो प्रत्येक भिक्षार्थी को भिक्षा देना नितान्त आवश्यक है जो कि मनुष्य के दयालु तथा सभ्य होने के गुण को दर्शाता है। अन्यथा जीवित होते हुए भी वह मृतक के समान है। यदि रहीम जी का आजकल के भिक्षार्थियों की वास्तविकता से साक्षात्कार हुआ होता तो वे स्वयं ही अपने विचारों को बदल देते। उनके समय में तो यदा-कदा ही साधु-संतों के दर्शन होते थे जिन्हें भिक्षा देकर लोग अपने अन्र्तमन में सुख का अनुभव करते थे। परन्तु अब तो घर से निकलते ही ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे देश की आधी जनता भीख मांगकर ही जीवन-यापन कर रही है। चाहे धर्मस्थल हो या अस्पताल, लंगर हो या मुख्य चौराहा।



हर जगह बड़ी-सी जमात में भिक्षार्थी उपलब्ध रहते हैं। तरह-तरह ढोंग- ढकोसलों में पारंगत ये लोग महिलाओं की मानसिकता को बहुत अच्छी तरह समझते हैं। जहाँ बच्चों की उन्नति तथा सुहाग की सलामती का हवाला दिया, वहीं महिलाएँ भाव-विह्वल हो जाती हैं और क्यों न हों जब 1 या 2 रुपये में सुहाग की रक्षा व सुरक्षा हो जाए तो भला किस महिला को भीख देने में गुरेज होगी। इसी तरह दिखने में ये निरीह प्राणी अपनी दुआओं के सहारे हर व्यक्ति की इच्छाओं को पूरा करने की क्षमता रखते हैं। अपनी अनोखी भाव- भंगिमा, वेश-भूषा या फिर झूठी विकलांगता दिखाकर कठोर लोगों को भी दयालु बना देते हैं और एक रुपये में दुआओं की भरमार कर देते हैं। इतनी महंगाई में इतनी सस्ती दुआएँ आखिर कौन नहीं लेना चाहेगा।


प्राचीन काल के साधु-सन्त भिक्षा गृहण कर जीवन-यापन करते थे क्योंकि उनका उद्देश्य समाज की सेवा करना था। अपने बहुमूल्य समय को आजीविका- उर्पाजन में नष्ट नहीं करना चाहते थे। वे अपना सम्पूर्ण जीवन पुनीत कार्यों में ही लगाते थे। उनके सुकृत्यों तथा सत्प्रयत्नों से समाज में समृद्धि विकसित होती थी। उनका समाज में, देश में एक सम्मानित स्थान होता था। कोई भी आलस्यवश भिक्षा ग्रहण नहीं करता था, इसीलिए उस समय भिक्षावृत्ति-जैसी भयावह समस्या नहीं थी।


परन्तु आज के समय में साधु-सन्तों की सोच विपरीत दिशा में चल रही है। वे लोकमंगल की जगह अमंगल-ही-अमंगल कर रहे हैं। तरह-तरह के प्रपञ्च करके वे भोली-भाली जनता को भ्रमित कर रहे हैंऔर जनता भी ऐसे कुपात्रों को दान देकर भिक्षावृत्ति-जैसी दुष्प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है। मनुष्य की यह दयालुता, उदारवादिता अनजाने में अर्कमण्यता को बढ़ाती है। इसलिए हे दयालु माताओ, बहनो! इन बहरूपिए साधु-संन्यासियों का चक्कर छोड़कर अपने पति व बच्चों की रक्षासुरक्षा के लिए स्वयं प्रभु से प्रार्थना करें और पूर्ण विश्वास रखें कि धन के बदले सुरक्षा-कवच देनेवाले भिक्षार्थियोंसंन्यासियों की अपेक्षा वह आपकी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे। इसलिये हे दाताओ, शारीरिक रूप से असमर्थ व्यक्तियों की अतिरिक्त सोच-समझ तथा जाँच-परखकर ही दान दें, क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि दूसरों की निर्धनता दूर करते-करते आप स्वयं कंगाल हो जाएँ। वैसे बिना परिश्रम किए जीवन व्यतीत करना, समर्थ होते हुए भी दूसरों के सामने हाथ पसारकर अपना आत्मसम्मान खोना जैसे जीवन को ढोनाभर है। ऐसे मनुष्यों के लिए तो यही कहना सही होगा- मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।