निरंजनी सम्प्रदाय

निरंजनी सम्प्रदाय का नामकरण उसके संस्थापक स्वामी निरंजन भगवान् के नाम पर हुआ। निरंजन भगवान् के जन्म और परिचय के विषय में कुछ भी नहीं ज्ञात है। हिंदी के विद्वानों में पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल तथा परशुराम चतुर्वेदी का मत है कि निरंजनी सम्प्रदाय ‘नाथ सम्प्रदाय’ और ‘निर्गुण सम्प्रदाय की एक लड़ी है। इस सम्प्रदाय का सर्वप्रथम प्रचार उड़ीसा में हुआ और प्रसारक्षेत्र पश्चिम दिशा बनी।।



डॉ. देव कोठारी की मान्यता है कि यह संप्रदाय ज्ञान, भक्ति और वैराग्य का सम्मिश्रण है। ‘निरंजन' नाम के कारण इस संप्रदाय का संबंध नाथ पंथ से जोड़ा जाता है, किन्तु यह सही प्रतीत नहीं होता है। यह तो ‘निरंजन' शब्द की उपासना के कारण ही ‘निरंजनी संप्रदाय' कहलाता है। हरिदासजी ने कबीर की साधना-पद्धति को, जो ‘करड़ी' मानी जाती है, अपनाया। 'निरंजन' शब्द परमात्मा तत्त्व का प्रतीक है। ‘अलख- निरंजन’, ‘हरि-निरंजन’, ‘रामनिरंजन' का प्रयोग उसी अर्थ में किया गया है। इस संप्रदाय में साम्प्रदायिकता का नामोनिशान भी नहीं है। इतना तथा सगुणोपासना हैं। इस संप्रदाय नहीं है। इतना ही नहीं, निरंजनी मूर्ति-पूजा तथा सगुणोपासना का विरोध भी नहीं करते हैं। इस संप्रदाय के अनुयायियों में विरक्तों को ‘निहंग' तथा 'गृहस्थों को ‘घरबारी' कहा जाता है। घरबारी गृहस्थियों के से कपड़े पहनते और रामानन्दी तिलक लगाते हैं। ये मन्दिरों की पूजा करते हैं जो बाद में आजीविका के लिए इनलोगों ने शुरू कर दी है। औरतें विशेषकर सफेद छींट के घाघरे पहनती हैं। मर्द धोती के नीचे कोपीन रखते हैं। ये मुरदे जलाते हैं और उनकी सत्रहवीं होती है। निहंग खाकी रंग की गुदड़ी गले में डालते हैं, पात्र रखते हैं तथा भिक्षावृत्ति द्वारा जीवन निर्वाह करते हैं। कुछ निरंजनी साधु गले में ‘सेली' भी बाँधते हैं। राजस्थान के नागौर जिले में स्थित डीडवाना के पास 'गाढ़ा' नामक गाँव में फाल्गुन शुक्ल प्रतिपदा से द्वादशी तक वार्षिक मेला लगता है जिसमें इस संप्रदाय के काफ़ी अनुयायी एकत्र होते हैं। इसमें हरिदासजी की गूदड़ी के दर्शन कराए जाते हैं।


प्रमुख प्रचारक 


राघोदास ने अपने भक्तमाल' में लिखा है। कि जैसे मध्वाचार्य, विष्णुस्वामी, रामानुजाचार्य तथा निम्बार्क महंत चक्कवे के रूप में चार सगुणोपासक प्रसिद्ध हुए, उसी प्रकार कबीर, नानक, दादू और जगन निर्गुण साधना के क्षेत्र में ख्याति के अधिकारी बने और इन चारों का सम्बन्ध निरंजन से है। निरंजनी सम्प्रदाय के बारह प्रमुख प्रचारक हुए हैं- 1. लपट्यौ जगन्नाथदास, 2, स्यामदास, 3. कान्हडदास, 4. ध्यानदास, 5. षेमदास, 6. नाथ, 7. जगजीवन, 8. तुरसीदास, 9. आनन्ददास, 10. पूरणदास (1867 ई.), 11. मोहनदास और 12. हरिदास।


साधना-रीति


निरंजनी सम्प्रदाय की साधना में उलटी रीति को प्रधानता दी गई है। साधक को बहिर्मुखी करके मन को निरंजन ब्रह्म में नियोजित करना चाहिये। उलटी डुबकी लगाकर अलख की पहचान कर लेना चाहिये, तभी गुण, इन्द्रिय, मन तथा वाणी स्ववश होती है। इड़ा और पिंगला नाड़ियों की मध्यवर्तिनी सुषुम्ना को जाग्रत् करके अनहदनाद श्रवण करता हुआ बंकनालि के माध्यम से शून्यमण्डल में प्रवेश करके अमृतपान करनेवाला सच्चा योगी है। नाम वह धागा है, जो निरंजन के साथ सम्पर्क या सम्बन्ध स्थापित करता है। परम तत्त्व या निरंजन न उत्पन्न होता है, न नष्ट। वह एक भाव और निर्लिप्त होकर अखिल चराचर में व्याप्त है। निरंजन अगम, अगोचर है। वह निराकार है। वह नित्य और अचल है। घट-घट में उसकी माया का प्रसार है। वह परोक्ष रूप से समस्त सृष्टि का संचालन करता है। निरंजन अवतार के बन्धन में नहीं बँधता है।


कवि तथा रचनाएँ


हरिदास निरंजनी सम्प्रदाय के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। इनकी कविताओं का संग्रह ‘श्री हरिपुरुषजी की वाणी' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। निपट निरंजन महान् सिद्ध थे और इनके नाम पर दो ग्रंथ 'शांत सरसी' तथा निरंजन संग्रह प्रसिद्ध हैं। भगवानदास निरंजनी ने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें से ‘अमृतधारा', 'प्रेमपदार्थ', 'गीता माहात्म्य' उल्लेखनीय हैं। इन्होंने ‘भर्तृहरिशतक' का हिंदी अनुवाद भी किया था। तुरसीदास निरंजनी सम्प्रदाय के बड़े समर्थ कवि थे। इनकी 4202 साखियों, 461 पदों और 4 छोटी-छोटी रचनाओं का संग्रह पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल द्वारा किया गया था। सेवादास की 3561 साखियों, 802 पदों, 399 कुण्डलियों और 10 ग्रंथों का उल्लेख बड़थ्वाल ने किया है। निरंजनी सप्रदाय में कई अच्छे और समर्थ कवि हुए हैं। इनकी रचनाएँ अच्छी कवित्व-शक्ति की परिचायक हैं।


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