पूर्वी भारत के पंथ-संप्रदाय

अरुणाचलप्रदेश, नागालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय, असम और सिक्किम में कुल 108 आदिम जनजातियों में आदि, खामती, आपातानी, मिश्मी, शरतुकपेन, मोन्या, सिंफो, बुगुन, मिरि आदि मुख्य हैं। धार्मिक दृष्टिकोण से ये तीन मुख्य विभागों में विभाजित हैं- 1. प्रकृतिपूजक सूर्य-चंद्र (दोन्यो-पोलो) की उपासना करनेवाला समुदाय, 2. बौद्ध-मतानुयायी और 3. अन्य पंथ, । जैसे-ईसाई, मुस्लिम। वज्रयानी सिद्धों का लीलास्थल भारत का पूर्वी भाग था। चौरासी बौद्ध सिद्धों में सरहपा, सबरपा, भुसूकपा, दारिकपा, कमरिया, धामपा, कण्हप्पा-जैसे सिद्ध पूर्वी भारत के साथ ही जुड़े हुए थे। असमियासाहित्य में शंकरदेव के बाद आज तक श्रीमद्भागवत-आधारित वैष्णव-सम्प्रदाय का पुरस्कार होता रहा है। असम का शंकरदेव का ‘महापुरुषिया मत' वैष्णव भक्तिधारा के साथ संलग्न होने के बावजूद सामाजिक दृष्टि से अति उदार है। तमाम जाति-वर्ण के लोग उनके शिष्य थे, देवप्रसाद-भोजन इत्यादि मिथ्याचारों का विरो बाह्मण भी दलित संतों के लिए जाते थे। उत्तर-पूर्वी भारत के बंगाल तथा ओड़िशा इत्यादि प्रदेशों में ‘निरंजन पंथ' नामक प्राचीन योग साधनामूलक अध्यात्म साधना प्रचलित थी, जिसका प्रभाव आज भी देखने को मिलता है। 



भाषा, प्रदेश, धर्म, जाति, वर्ण, रीति-रिवाज और जीवन- रीतियों में असंख्य भिन्नता होने के बावजूद समग्र भारतवर्ष की प्रजा में जो ऊँची तलस्पर्शी मूलगत एकता दिखाई देती है, वो है भारतीय संस्कृति की एकता। भारत की भावात्मक और सांस्कृतिक एकता गुजरात के ओखा से पूर्वी भारत के असम तक और काश्मीर से कन्याकुमारी तक रंगबिरंगी पहलूवाली चुनरी की तरह विशिष्ट बात दिखाई देती है।


भारत का धर्म चिन्तन-प्रवाह, अध्यात्म साधना-प्रवाह सदैव राजकीय संघर्षों व सांप्रदायिक कट्टरता से मुक्त रहा है। जगत् के सबसे प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में कहा गया है कि एक ही सत्य को कवियों और विचारक भिन्न-भिन्न भाषाओं में व्यक्त करते हैं, जिसकी अंदरूनी वस्तू व गण में कोई भिन्नता नहीं, सिर्फ नाम-रूप में भिन्नता दिखाई देती है, वे ही भारतीय लोक-समाज में और अध्यात्म-परंपराओं में सिद्ध हुआ है। जैसे अनेक नदियों का नीरप्रवाह भिन्न-भिन्न किनारे से समुद्र में विलीन हो जाता है, वैसे ही तमाम भारतीय भाषाओं के संत भक्त कवियों का अन्तिम गंतव्य स्थान तो शुद्ध अध्यात्म ही है। सगुण-साकार के उपासक, निर्गुण-निराकार के उपासक या तो सगुण-निराकार व निर्गुण-साकार का समन्यवादी उपासक कोई भी परम्परा से जुड़ा हुआ संत या भक्त संस्कार तथा संस्कृति को बचाने की कोशिश करता है।


आसेतुहिमाचल भारतवर्ष के तमाम प्रांतों में धर्म, दर्शन, विज्ञान, आयुर्वेद-जैसे विषयों की भाषा संस्कृत ही थी। हमारा श्रेष्ठतम साहित्य छः हजार वर्षों से अधिक समय से वैदिक या लौकिक संस्कृत में रचित मिलता है। 1000 ई.पू. के समय से भारत के विभिन्न प्रदेशों में इण्डो-आर्यन भाषा में से बंगाली, असमिया, उड़िया, मैथिली, भोजपुरी, ब्रज, कोसली, पहाड़ी, राजस्थानी, मालवी, गुजराती, मराठी, कोंकणी, पंजाबी, सिंधी और कश्मीरी- जैसी प्रादेशिक भाषाएँ अस्तित्व में आ गईं और इसमें प्राचीन भारतीय साहित्यिक परम्पराओं का अनुसंधान अखण्ड रूप से जीवन्त रहा। अर्वाचीन भारतीय भाषाओं के प्रारंभ काल से ही धर्म और अध्यात्म, चिन्तन और साधना, ज्ञान और भक्ति, कर्म और योग-जैसे पहलु साहित्य के कई स्वरूप व प्रकारों में अध्यात्ममार्गी संत- भक्त कवियों के द्वारा पद-भजन, जैसे- ऊर्मि-गीत, कथात्मक आख्यान, महा काव्य, गद्य-पद्यात्मक पुराकथा, दंतकथा । और लोककथाओं (लोकाख्यानों) के माध्यम से लोक-समुदाय के सामने आता रहा।


भारतीय वैदिक चिन्तन-धारा में से शैव, शाक्त, वैष्णव, बौद्ध, जैन-जैसे संप्रदायों का गठन हुआ। आचार्य क्षितिमोहन सेन (1880-1960) ने अपना ग्रंथ 'बांग्लेर साधना' में कहा है कि भारतवर्ष के तमाम अध्यात्ममार्गी संत- भक्तों ने सत्य की उपासना की है। सत्य ही उनकी जीवन साधना थी। कबीर साहब ने गाया :


सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप, जाके हिरदे सांच है, ता के हिरदे आप। तो भक्त-साधक दादु कहते हैं


सुधा मारग साचका, साचा होइ सो जाइ, झूठा कोइ ना चले, दादु दिया दिखाई।


भारत के तमाम पंथ, मत, संप्रदाय और विविध साधना-धाराओं में से संत कबीर साहब ने समन्वय की साधना का निर्माण किया। शैव, शाक्त, वैष्णवी प्रेम साधना, इस्लाम के सूफी, ज्ञानमार्गी, नाथ संप्रदाय के योगमार्गी, भक्तिमार्गी, जैन, बौद्ध, तंत्र- ऐसे तमाम प्रकार की भक्ति-साधना व संत साधना की धाराएँ कबीर साहब की वाणी में और अनुवर्ती भारतीय भाषाओं के संत/भक्त कवियों की बानी में दिखाई देती हैं।


जैनों के ‘पाहुड दोहा' सर्जक मुनि रामसिंह ने बंगाल में (1000 ई.पू. करीब) गाया था :


एत्थु (ओत्थु) से सुर सरि जमुना, ओत्थु से गंगा सागरु, अत्थु एआगवना रसि, अत्थु से चंद दिवाअरुं। इस देह में ही गंगा, जमुना, प्रयाग और बनारस है। और इस देह में ही चंद्र तथा सूर्य। यही बात कबीर साहब ने बताई 


या घट भीतर सप्त समुंदर, याही में नदिया नारा,


या घट भीतर काशी द्वारका, या घट भीतर चंद सूरा।


पर्ती भारत की संत परंपरा:


वर्तमान भारत के नक्शे में असम, नागालैण्ड, मणिपुर, अरुणाचलप्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा, बंगाल, ओडिशा, बिहार, झारखण्ड, बांग्लादेश, मिजोरम, मलेशिया, थाईलैण्ड, म्यांमार, लाओस, कम्बोडिया इत्यादि प्रदेश पूर्व दिशा में है। चीन, म्यांमार, बांगलादेश और भूटान- जैसे चार देश के बीच में समाया हुआ भारतीय प्रदेश यानि पूर्व भारत। भाषा की दृष्टि से पूर्व-मागधी भाषा से


भाषा की दृष्टि से पूर्व-मागधी भाषा से मागधी अपभ्रंश का जन्म हुआ, इसमें से बांग्ला, असमिया और उड़िया- इन तीन भाषाओं का विकास हुआ। इन तीनों भाषाओं के लोग अपनी भाषा के प्राचीनतम साहित्य के स्थान पर सिद्ध कान्हपा-जैसे बौद्ध-सिद्धों के चयपदों को बताते हैं। जिसमें गुह्य साधना की अभिव्यक्ति दिखाई देती है। असम में बाराही, चुटिया, मारन और भूयान-जैसी जातियाँ पहाड़ी इलाकों व सपाट मैदानों में बसती है। आय के रामायण, महाभारत और अन्य प्राचीन पुराण-ग्रंथों में असम के निवासियों को म्लेच्छ, किरात या चीना के नाम से अभिहित किया गया है। असम में आर्य और मंगोल-संस्कृति का सम्मिश्रण देखने को मिलता है।


भारत का उत्तर-पूर्वी प्रदेश, जो महाभारत काल में कामरूप प्रदेश के नाम से पहचाना गया है, की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर थी। सृष्टि के सर्जक ब्रह्मा ने इस प्रदेश में सर्वप्रथम नक्षत्रों का सर्जन किया। इसलिए इसे नक्षत्रों का पूर्व प्रदेश, ज्योतिषविद्या के उद्भव-स्थान कामरूप प्रदेश के नाम से पुराण-ग्रंथों में और साहित्य की भाषा में लाल नदी और नीले (ब्ल्यू) पर्वतों के प्रदेश के नाम से तथा लोहित व नीलाञ्चल के नाम से भी पहचाना गया है। महाकवि कालिदास ने अपने काव्य ‘मेघदूत' में इस धरती की भौगोलिक संपत्ति का वर्णन किया है।


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