ऋषभदेव-पुत्र भरत के नाम पर हुआ था अपने देश का नामकरण

अपने देश का नामकरण ( भारतवर्ष) किस भरत के नाम पर हुआ? अनेक विद्वान् डेढ़ सौ वर्ष से तोते की तरह रट रहे हैं कि दुष्यन्तपुत्र भरत (जो सिंह के दांत गिनता था) के नाम पर इस देश का नामकरण 'भारत' हुआ है।


हमारे पुराणों में बताया गया है कि प्रलयकाल के पश्चात् स्वायम्भुव मनु के ज्येष्ठ पुत्र प्रियव्रत ने रात्रि में भी प्रकाश रखने की इच्छा से ज्योतिर्मय रथ के द्वारा सात बार भूमण्डल की परिक्रमा की। परिक्रमा के दौरान रथ की लीक से जो सात मण्डलाकार गड्ढे बने, वे ही सप्तसिंधु हुए। फिर उनके अन्तर्वर्ती क्षेत्र सात महाद्वीप हुए जो क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौञ्चद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप कहलाए। ये द्वीप क्रमशः दुगुने बड़े होते गए हैं और उनमें जम्बूद्वीप सबके बीच में स्थित है



जम्बूद्वीपः समस्तानामेतेषां मध्यसंस्थितः । -ब्रह्ममहापुराण, 18.13


प्रियव्रत के 10 पुत्रों में से 3 के विरक्त हो जाने के कारण शेष 7 पुत्र आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ट, मेधातिथि और वीतिहोत्र क्रमशः जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलिद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप के अधिपति हुए। प्रियव्रत ने अपने पुत्र आग्नीध्र को जम्बूद्वीप दिया था


जम्बूद्वीपं महाभाग साग्नीध्राय ददौ पिता मेधातिर्थस्तथा प्रादात्प्लक्षद्वीपं तथापरम् ॥ -विष्णुमहापुराण, 2.1.12


जम्बूद्वीपाधिपति आग्नीध्र के 9 पुत्र हुए- नाभि, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत्त, रम्यक, हिरण्यमय, कुरु, भद्राश्व तथा केतुमाल। सम विभाग के लिए आग्नीध्र ने जम्बूद्वीप के 9 विभाग करके उन्हें अपने पुत्रों में बाँट दिया और उनके नाम पर ही उन विभागों के नामकरण हुए


आग्नीध्रसुतास्तेमातुरनुग्रहादोत्पत्तिकेनेव संहननबलोपेताः पित्रा विभक्ता आत्म तुल्यनामानियथाभागं जम्बूद्वीपवर्षाणि बुभुजः


-भागवतमहापुराण, 5.2.21; मार्कण्डेयमहापुराण, 53.31-35 पिता (आग्नीध्र) ने दक्षिण की ओर का ‘हिमवर्ष' (जिसे अब * भारतवर्ष' कहते हैं) नाभि को दिया


पिता दत्तं हिमावं तु वर्षं नाभेस्तु दक्षिणम् -विष्णुमहापुराण, 2.1.18


आठ विभागों के नाम तो ‘किंपुरुषवर्ष', 'हरिवर्ष' आदि ही हुए, किंतु ज्येष्ठ पुत्र का भाग ‘नाभि' से 'अजनाभवर्ष' हुआ। नाभि के एक ही पुत्र ऋषभदेव थे जो बाद में (जैनों के) प्रथम तीर्थंकर हुए। ऋषभदेव के एक सौ पुत्र हुए जिनमें भरत सबसे बड़े थे। ऋषभदेव ने वन जाते समय अपना राज्य भरत को दे दिया था, तभी से उनका खण्ड ‘भारतवर्ष' कहलाया


ऋषभाद्भरतोः जज्ञे ज्येष्ठः पुत्रशतस्य सः । ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषु गीयते । भरताय यतः पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम् ॥ -विष्णुमहापुराण, 21.28; कूर्ममहापुराण, ब्राह्मीसंहिता, पूर्व, 40-41


येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीद्येनेदं वर्ष भारतमिति व्यदिशन्ति -भागवतमहापुराण, 5.4.9


तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायणपरायणः । विख्यातं वर्षमेतद्यन्नाम्ना भरतमद्धतम् ॥ -वही, 11.2.17


ऋषभो मेरुदेव्यां च ऋषभाद्भरतोऽभवत् । भरताद्धारतंवर्ष भरतात् सुमतिस्त्वभूत् ॥ -अग्निमहापुराण, 107.11


नाभे पुत्रात्तु ऋषभाद् भरतो याभवत् ततः ।। तस्य नाम्ना त्विदंवर्षं भारतं येति कीर्त्यते ॥ -नृसिंहपुराण, 30; स्कन्दमहापुराण, 1.2.37.57


उसी दिन से इस देश का नाम भारतवर्ष हो गया जो आज तक है। (ऋषभदेव का) अजनाभवर्ष ही भरत के नाम पर ‘भारतवर्ष कहलाया


अजनाभं नामैतद्वर्ष भारतमिति यत आरभ्य व्यपदिशन्ति । -भागवतमहापुराण, 5.7.3


चूँकि ऋषभदेव ने अपने ‘हिमवर्ष' नामक दक्षिणी खण्ड को अपने पुत्र भरत को दिया था, इसी कारण उसका नाम भरत के नामानुसार भारतवर्ष' पड़ा


नाभेस्तु दक्षिणं वर्ष हेमाख्यं तु पिता ददौ -लिंगमहापुराण, 476


हिमावं दक्षिणं वर्ष भरताय न्यवेदयत् ।। तस्मात् तद्भारतं वर्षं तस्य नाम्ना विदुर्बुधः॥ -वायुपुराण, 33.52; ब्रह्माण्डमहापुराण, 2.14.62; लिंगमहापुराण, 47.23-24


हिमाद्वंदक्षिणंवर्ष भरतायपिताददौ। तस्मात्तु भारतंवर्षं तस्यनाम्नामहात्मनः॥ —मार्कण्डेयमहापुराण, 50.40-41


इदं हैमवतं वर्ष भारतं नाम विश्रुतम् ॥ -मत्स्यमहापुराण, 113.28


पाश्चात्य इतिहासकारों को तो यह सिद्ध करना था कि यह देश ( भारतवर्ष) बहुत प्राचीन नहीं है, केवल पाँच हजार वर्ष का ही इसका इतिहास है। इसलिए उन्होंने बताया कि स्वायम्भुव मनु, प्रियव्रत, नाभि, ऋषभदेव, आदि तो कभी हुए ही नहीं, ये सब पुराणों की कल्पनाएँ हैं। पुराणों के विद्वान् माने जानेवाले फ्रेडरिक ईडन पार्जीटर (1852-1927) ने अपने ग्रन्थ 'एंशियंट इण्डियन हिस्टॉरिकल ट्रेडिशन' (1922) में स्वायम्भुव मनु से चाक्षुस मनु तक के इतिहास को लुप्त कर दिया। दुर्भाग्य की बात है कि हमारे देश के अनेक स्वनामधन्य इतिहासकारों ने भी पाश्चात्यों का अंधानुकरण करते हुए हमारी प्राचीन परम्परा को बर्बादकर दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से ही अपने देश का नामकरण माना। यहाँ तक कि डॉ. राधाकुमुद मुखर्जी (1884-1964)-जैसे विद्वान् तक ने अपने ग्रन्थ ‘फण्डमेंटल यूनिटी ऑफ़ इण्डिया' (1914) में लगता है सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ही दुष्यन्तपुत्र भरत के नाम से अपने देश का नामकरण मान लिया। कहाँ तक कहा जाए ! आधुनिक काल के इतिहासकारों ने किस प्रकार भारतीय इतिहास का सर्वनाश किया है, यह व्यापक अनुसन्धान का विषय है।


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