सनातन हिंदू-धर्म अपौरुषेयवेद से ही उद्भूत है।

सस्कृत-भाषा का शब्द 'धर्म' अत्यन्त उदात्त अर्थ रखता है। संस्कृत में अर्थग्रथित शब्द बनाने की अद्भुत क्षमता रही है। किन्तु उसका भी जैसा उत्कृष्ट उदाहरण 'धर्म' शब्द में मिलता , वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। भारतवर्ष ने जो कुछ सशक्त निर्माण-कार्य युग-युग में संपन्न किया है और कर रहा है, वह सब ‘धर्म' है। यह धर्म-भाव प्रत्येक हिंदू के हृदय में अनादिकाल से अंकित है। यदि यह प्रश्न किया जाए कि सहस्रों वर्ष प्राचीन भारतीय- संस्कृति की उपलब्धि क्या है और यहाँ के जनसमूह ने किस जीवन-दर्शन का अनुभव किया था, तो इसका एकमात्र उत्तर यही है। कि भारतीय-साहित्य, कला, जीवन, संस्कृति और दर्शन- इन सबकी उपलब्धि ‘धर्म' है। भारतीय-जीवनरूपी मानसरोवर में तैरता हुआ सुनहला हंस धर्म है। उसी के ऊपर हमारी संस्कृति के निर्माता प्रजापति ब्रह्मा । जीवन के सब क्षेत्रों या लोकों में विचरते हैं। (कल्याण, धर्माक, पृ. 91, गीताप्रेस, गोरखपुर)।



 


व्याकरण में ‘धर्म' शब्द की व्युत्पत्ति इस रूप में है कि ‘धृञ्' धातु से ‘मक् प्रत्यय करने पर 'धर्म' शब्द बनता है। ‘धृञ्' धातु का अर्थ ही है- 'धृञ् धारणपोषणयोः' अर्थात् किसी भी शास्त्रीय नियमों का धारण करना एवं उनका यथोचितरूपेण पालन करना। (धर्माक, पृ. 97)। इस व्युत्पत्ति के आधार पर धर्म की दो परिभाषाएँ इस देश में सदा से मान्य रही हैं। पहला, धर्म ही समस्त जगत् का आधार है- 'धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा' (महानारायणोपनिषद्, 22.1) और दूसरा, धर्म ही प्रजाओं के जीवन में सर्वोपरि तत्त्व है- 'तस्माद्धर्म परमं वदन्ति' (महानारायणोपनिषद्, 22.1)। उसे ही दूसरे प्रकार से कहा गया है कि जो तत्त्व मनुष्य के, समाज के, राष्ट्र के और विश्व के जीवन को धारण करता है, वही धर्म है- 'धारणाद् धर्ममित्याहुधर्मो धारयति प्रजाः'।


जिस प्रकार वेद अनन्त है, उसी प्रकार धर्म के भी अनन्त लक्षण हैं। श्रुति-स्मृति में धर्म के जो लक्षण कहे गए हैं, उनको एकत्रित करना मनुष्य के वश की बात नहीं है। (धर्माक, पृ. 27)। नारायणपण्डित ने हितोपदेश (1.8) में जिसे 8 लक्षणोंवाला धर्म कहा है, मनुस्मृति (6.92) ने जिसे 10 लक्षणोंवाला धर्म कहा है और भागवतमहापुराण में जिसको विस्तार करके 30 लक्षणोंवाला धर्म बताया गया है, वही तो मनुष्यमात्र के लिए सर्वमान्य सनातनधर्म है- 'सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् । सनातनम्। स्थूल रूप से, जिस कार्य को करने से (ऐहलौकिक, सांसारिक) उन्नति और (पारलौकिक) मोक्ष की प्राप्ति हो, वही धर्म है- ‘यतोभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः धर्मः' (वैशेषिकदर्शन


इस प्रकार धर्म वह प्रणाली अथवा संस्था है, जिसकी सर्वांगपूर्ण परिभाषा बन चुकी है (धर्मांक, पृ. 5) कि जो हमें सभी तरह से विनाश और अधोगति से बचाकर उन्नति की ओर ले जाता है, वही धर्म है। सनातन का अर्थ है नित्य। जो तत्त्व सर्वदा निर्लेप, निरञ्जन, निर्विकार और सदैव स्वस्वरूप में अवस्थित रहता है, उसे शाश्वत सनातन कहते हैं। (क्यों?, पूर्वार्ध, लेखक : शास्त्रार्थमहारथी पं. माधवाचार्य शास्त्री, पृ. 59)। वेद से, धर्मशास्त्रों से तथा परम्पराप्राप्त शिष्टाचार से अनुमोदित जो धर्म है, उसे ही सनातन-धर्म कहते हैं। ‘सनातनधर्म' के विभिन्न अर्थ हैं। व्याकरण की दृष्टि से ‘सनातन-धर्म में षष्ठी-तत्पुरुषसमास है। अर्थात् ‘सनातनस्य धर्म इति सनातनधर्मः'। सनातन का धर्म, सनातन में लगाई गई षष्ठी विभक्ति स्थाप्य-स्थापक-संबंध की बोधक है। दूसरे शब्दों में जिस प्रकार ईसाइयत, इस्लाम, पारसी एवं बौद्धमत अपने साथ ही क्रमशः ईसा, मुहम्मद, जरथुष्ट एवं बुद्ध के भी बोधक हैं, उसी प्रकार सनातन-धर्म भी यह बताता है कि यह धर्म उस सनातन अर्थात् नित्य तत्त्व परमात्मा द्वारा ही चलाया गया है, किसी व्यक्ति के द्वारा नहीं। (धर्मांक, पृ. 7)।


सनातन-धर्म अनादि और अनन्त है, क्योंकि सृष्टि की उत्पत्ति के समय से लेकर प्रलयकाल तक यह विद्यमान रहता है। यह सनातन इसलिए नहीं है कि यह सनातन ईश्वर द्वारा स्थापित है, अपितु यह स्वयं भी सनातन या नित्य है। यह प्रलयकाल तक अस्तित्व में रहेगा, प्रलय के बाद भी नष्ट होनेवाला नहीं है, अपितु गुप्त रूप से तब भी यह अवस्थित रहता है। अगले कल्प में यह पुनः लोगों की रक्षा और उन्नति के लिए प्रकट हो जाता है। इस तरह यह धर्म अनादिकाल से कल्यों- कल्पों से चला आ रहा है। व्याकरण की दृष्टि से इस दूसरे अर्थ का बोधक कर्मधारय समास है, जिसके अनुसार 'सनातन-धर्म इस पद का विग्रह होता है- ‘सनातनश्चासौ धर्मश्च' अर्थात् सनातन रूप से रहनेवाला धर्म। (धर्मांक, पृ. 7-8)। यह धर्म केवल सनातन ही नहीं है, वरन् भारतीय-चिन्तन काआधार ‘नवोनवो भवति जायमानो'  (ऋग्वेद, 10.85.19)।  


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