श्री वैष्णव-सम्प्रदाय की झाँकी

वैष्णव-सम्प्रदाय के उद्गम-स्थान हैं- भगवान् विष्णु। वैष्णव सम्प्रदाय के चार प्रसिद्ध उपसम्प्रदाय हैं- 1. श्री सम्प्रदाय, 2. ब्रह्म-सम्प्रदाय, 3. रुद्र,सम्प्रदाय और 4. सनक-सम्प्रदाय। इनमें श्री सम्प्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य, ब्रह्मसम्प्रदाय के मध्याचार्य, रुद्र-सम्प्रदाय के विष्णु स्वामी तथा सनक-सम्प्रदाय के निम्बार्काचार्य माने गए हैं- रामानुजं श्रीः । स्वीचक्रे मध्वाचार्य चतुर्मुखः। श्री विष्णुस्वामिनं रुद्रो निम्बादित्यं चतुस्सनः। (पद्मपुराण)। इन सम्प्रदायों में श्री सम्प्रदाय' ही सबसे पुरातन है। इसके अनुयायी ‘श्री वैष्णव' कहलाते हैं। इन अनुयायियों की मान्यता है कि भगवान् । नारायण ने अपनी शक्ति श्री (लक्ष्मी) को अध्यात्म ज्ञान प्रदान किया। तदुपरांत लक्ष्मी ने वही अध्यात्मज्ञान विष्वक्सेन को और विष्क्सेन ने नम्माळवार को दिया। इसी आचार्य-परम्परा से कालांतर में रामानुज ने वह अध्यात्मज्ञान प्राप्त किया। इसके फलस्वरूप श्री रामानुज ने 'श्री वैष्णव' मत को प्रतिष्ठापितकर इसका प्रचार किया।



ईसा की सातवीं शताब्दी में दक्षिण भारत के तमिळ प्रांत में श्री वैष्णव मत के अनुयायी संतों की संख्या में क्रमशः वृद्धि होने लगी। उपदेशरत्नमाला में उल्लेख है कि भगवान् रंगनाथ ने इन भक्तों को ‘आळवार की संज्ञा दी। वस्तुतः ‘आळवार' तमिळ भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- ‘भक्तिसागर में निमग्न होनेवाला'। ये आळवार, भगवान् नारायण के सच्चे भक्त थे और सभी स्वतंत्र रूप से अपना भक्तिमय जीवन बिताते रहे। इन आळवारों ने 7वीं से 9वीं शताब्दी तक अपने अथक परिश्रम से भक्ति को दृढमूल बनाकर श्री वैष्णव सम्प्रदाय का प्रसार किया।


दशम शताब्दी में इस सम्प्रदाय के आचार्यों ने आळवारों की भक्ति के अनुरूप अनेक धार्मिक एवं दार्शनिक ग्रंथों की रचना की। इन आचार्यों की परम्परा में निम्नलिखित आचार्य प्रमुख हैं, जिन्होंने श्री वैष्णव सम्प्रदाय के विकास में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया


नाथमुनि (824-924 ई.)


नाथमुनि श्री वैष्णव सम्प्रदाय के आद्य आचार्य हुए। इन्होंने लुप्त तमिल-वेद को पुनरुद्धार किया तथा श्रीरंगनाथ मन्दिर में इसके गायन की परम्परा स्थापित की। इनके द्वारा रचित 'न्यायतत्त्व' विशिष्टाद्वैत का प्रथम ग्रंथ कहा जाता है।


यामुनाचार्य (918-1038)


ये नाथमुनि के पौत्र थे। ये अपने समय में ‘आलवंदार' के नाम से विख्यात थे। कहा जाता है कि ये कुछ समय के लिये राज्य पद पर आसीन रहे; किंतु नम्माळवार के भक्तिमय पद्यों का अनुशीलन करने के पश्चात् इनमें भगवान् नारायण के प्रति असीम भक्ति जाग्रत् हुई, जिसके परिणामस्वरूप इन्होंने अपना सर्वस्व त्यागकर श्री वैष्णव-सम्प्रदाय को अंगीकार किया। अपने जीवनकाल में इन्होंने छः पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथों का निर्माण किया, जिनमें गीतार्थसंग्रह, श्रीचतुःश्लोकी, सिद्धित्रय, महापुरुषनिर्णय (विष्णु की श्रेष्ठता का प्रतिपादन), आगमप्रामाण्य (पञ्चरात्र का विवेचन) एवं आलवंदारस्तोत्र है। यामुनाचार्य की इन कृतियों में भक्ति-भावना से ओत-प्रोत आळवंदारस्तोत्र' वैष्णव जगत् में अत्यंत मान्य है। रामानुजाचार्य (1017) 


यामुनाचार्य के पश्चात् रामानुज ने श्री वैष्णव सम्प्रदाय का आचार्य पद ग्रहण किया। इनमें जीवन-वृत्तांत के विषय में विश्रुत है। कि इनका जन्म मद्रास के निकट श्री पेरुम्बुदूर में हुआ। ये पम्परा से वैष्णव थे और इसी कारण चोल-नरेश के अत्याचारों के कारण श्रीरंग क्षेत्र छोड़कर मैसूर प्रांत में चले गये। सन् 1100 के लगभग इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर विशिष्टाद्वैतमतानुसार ‘श्री भाष्य' की रचना कर, विष्णुमहापुराण के प्रणेता पराशरमुनि के नाम के प्रसार की इच्छा से अपने भावी उत्तराधिकारी कुरेश के पुत्र का जातकर्म स्वयं करते समय ‘पराशर नाम देकर एवं नम्माळवार के 'तिरुवायमोळि' पर अपने मातुल-पुत्र कुरेश द्वारा तमिल-भाष्य का निर्माण करवाकर यामुनाचार्य के तीनों मनोरथों की पूर्ति की। इसके अतिरिक्त श्रीरामानुज ने वेदार्थसंग्रह', वेदार्थदीप, वेदांतसार एवं श्रीमद्भगवद्गीताभाष्य की रचना की। रामानुज की इन सभी कृतियों में ‘श्री भाष्य सर्वाधिक पाण्डित्यपूर्ण कृति है, जिसमें विशिष्टाद्वैत के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। 


वेदांतदेशिकाचार्य (1268-1370)


श्री वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्यों में वेदांतदेशिक भी उल्लेखनीय हैं। इनमें काव्यग्रंथों में यादवाभ्युदय, पादुकासहस्र आदि तथा दार्शनिक ग्रंथों में तत्त्वटीका, न्यायपरिशुद्धि एवं न्यायसिद्धाञ्जन अनुपम ग्रंथ हैं। ये 'वडकलै (औदीच्य) मत' के आचार्य थे।


लोकाचार्य (1205-1311) श्रीलोकाचार्य


श्रीलोकाचार्य श्री वैष्णव सम्प्रदाय के ‘तेन्कलै' (दाक्षिणात्य) मत के प्रवर्तक थे। इन्होंने 13 ग्रंथों का निर्माण किया, जिनमें श्रीवचनभूषण, तत्त्वत्रय तथा तत्त्वशेखर परम महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं।


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