अध्यात्मविज्ञानी : दूरदर्शी एवं सक्षम नेता

अध्यात्म के लिए अंग्रेजी-भाषा में पर्याय 'स्पीरिचुएलिटी' है जो प्राचीन फ्रांस की भाषा से लिया गया है। इसका भाव है। ‘आत्मा का अध्ययन' या ‘आत्मावलोकन'। ‘अध्यात्मविज्ञानी' वे विशेषज्ञ हैं जो अध्यात्म-क्षेत्र में अन्वेषण-कार्य में संलग्न हैं। वे इस कार्य को तर्कसंगत ढंग से कर रहे हैं।


सामान्यतः अन्वेषण-कार्य का भाव ‘तर्कसंगत पद्धति से खोज' ही माना जाता है। परन्तु यदि हम गंभीरता से विचार करेंगे, तो खोज के कार्य में केवल तार्किक बुद्धि का ही प्रयोग नहीं किया जाता, बल्कि मस्तिष्क की पाँचों श्रेणियों- अनुशासित मस्तिष्क, रचनात्मक मस्तिष्क, चारित्रिक मस्तिष्क, आदरणीय मस्तिष्क तथा तार्किक मस्तिष्क, अर्थात् सम्पूर्ण मस्तिष्क अथवा पूर्ण सक्ष्म (क्वांटम) मस्तिष्क का उपयोग किया जाता है। सम्पूर्ण अथवा सक्षम मस्तिष्क के उपयोग के बिना खोज-कार्य को अपूर्ण अथवा अपरिपक्व मस्तिष्क के साथ की गई बनावटी (अवास्तविक) कहा जाएगा।


खोज-कार्य के लिए विषय के प्रति पूर्ण संलग्नता की, अर्थात् शरीर में विद्यमान सभी 73 ट्रिलियन कोशिकाओं (कोषों) द्वारा परस्पर समन्वयपूर्वक कार्य करने की आवश्यकता है। सभी कोशिकाओं के विचारों का शरीर में विद्यमान 'आत्मा' समन्वय करती है। व्यक्ति खोज-कार्य के बारे में केवल विचार करता है तथा तदनुसार पूर्ण तन्मयता तथा एकाग्रता के साथ कार्य करता है तथा वह अपने ध्यान को अन्यत्र कहीं भटकने नहीं देता। अतः खोज-कार्य को सुंदर, व्यवस्थित एवं संतोषजनक रूप से करने के लिए व्यक्ति को अपने पूर्वोक्त क्वांटम (सक्षम) मस्तिष्क का ही पूर्ण उपयोग करना पड़ता है, अन्यथा खोज-कार्य अधूरा रह जायेगा। इसके अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग का विचार भी नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ यदि कोई व्यक्ति ऊँचे स्थान से नदी में छलांग लगाकर तैरने की कुशलता प्राप्त कर ले, तो अंदर विद्यमान आनद व प्रसन्नता की लहरें उसे तैरने के लिए स्वागतपूर्वक उत्साहित करती रहती हैं। इसी प्रकार खोज-कार्य भी परमानन्द की प्राप्ति कराती है।



सभी प्रकार के खोज-कार्यों का प्राथमिक लक्ष्य ‘कुछ नया खोज पाने' का होता है। इस हेतु नये विचारों की, नयी नीतियों की, तकनीकों की, पर्यावरण के प्रभाव की खोज करना ही अपेक्षित है। मस्तिष्क की सीमित क्षमताओं के साथ खोज-कार्य पूर्णता से नहीं किया जा सकता। सामान्य मस्तिष्क पूर्णता की खोज नहीं कर सकता। अतः ऐसे व्यक्ति केवल विषय पर कुछ अंशों में ही खोज-कार्य कर सकते हैं। अतः उन्हें विषय के किसी विशिष्ट पहलू, क्षेत्र अथवा प्रकार पर ही खोज करने का निर्णय करना पड़ता है और यह निर्णय विषयानुसार ही करना पड़ता है।


विशेष रूप से आध्यात्मिक क्षेत्र में खोज-कार्य एक अनन्त प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया जीवन-चक्र की प्रक्रिया के समान है। अर्थात् जन्म, विकास एवं वृद्धि तथा ह्रास का चक्र- दोनों में अन्तर इतना ही है। कि आध्यात्मिक खोज-कार्य सिनुसोडल वेब पाथ कि तरह है, जिसमें लहरें अत्यंत ऊँची उठती हैं तथा जिसके नकारात्मक क्षेत्र की धाराओं में विश्राम तथा पुनरुत्थान की प्रक्रिया तबतक चलती रहती है, जब तक आत्मा का परमात्मा से मिलन न हो जाए। आध्यात्मिक खोज-कार्य का यही रहस्य है। अध्यात्मविज्ञानी यह खोजने का प्रयत्न करते रहते हैं कि बार-बार आवागमन के चक्र से मुक्ति कैसे मिले। संभवतः इस लक्ष्यप्राप्ति के लिए उन्हें अथक प्रयत्न करने पड़ते हैं। अध्यात्मविज्ञानी सामान्य विज्ञानियों के समान जीवन-चक्र को बढ़ाने के प्रयत्न नहीं करते, वे एक ऐसा शीघ्र प्रभावी मार्ग ढूँढ़ना चाहते हैं, जिससे आत्मा का बार-बार धरती ग्रह पर आना रुक सके तथा आत्मा परमसत्ता (परमात्मा) के साथ एकाकार हो जाये। यद्यपि अध्यात्मविज्ञानी अपने इस उद्देश्य में पर्याप्त मात्रा में सफल हो चुके हैं, तथापि उनकी चिंता का विषय उनके सफल प्रयत्नों पर विश्वास करके उनका अनुसरण करनेवाले लोगों की ‘न्यून संख्या है। ऐसी स्थिति में सक्षम अध्यात्मविज्ञानियों की आवश्यकता है जो सामान्य जन को उनके खोज के परिणामों पर विश्वास करने के लिए प्रेरित कर सकें तथा ऐसे विश्वास करनेवालों को आवागमन के चक्र से छुड़ा सकें।


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