ऐ वक्त! तू मेरे लिए कभी खाली क्यों नहीं रहता!
पहले तो कितना वक्त रहता था मेरे पास मेरे लिए
पर अब ऐ वक्त!
तू कभी रुकता क्यों नहीं?
घण्टों अपने साथ बिताया करती थी मैं यूँ ही सूरज का ढलना
चाँद का खिलना देखा करती थी मैं
तब प्रकृति भी मेरे कितनी पास थी!
पर अब ऐ वक्त तू जाता है कहाँ क्या तुझे भी पता चल गया कि
खुद से कतराने लगी हूँ मैं अकेले बैठने से डरती हूँ मैं
सूरज का ढलना, चाँद का खिलना अब उदास करता है मुझे
ऐ वक्त! मैंने तो किसी से न कहा था। कि विदेश में अकेलापन सताता है मुझे
अपनों की याद खाली क्षणों में डराती है मुझे फिर ऐ वक्त! तुझे कैसे पता चला
कि अब तुझसे और खुद से घबराती हूँ मैं!!