भारतीय वृक्ष-विज्ञान की भारतीय वृक्ष-विज्ञान की परपरा

प्राचीन भारत में विज्ञान की जिन शाखाओं पर ऋषियों ने गहन चिन्तन आरम्भ किया था, उनमें ‘वृक्षायुर्वेद' भी एक था। कृषिशास्त्र के साथ ही वनस्पतिविज्ञान पर अनुसन्धान आरम्भ हो गया था। कृषि से पूर्व वृक्ष ही मानव के आश्रय-आवास, आहार और आनन्द के आधार रहे। वायुपुराण और महाराजा भोजकृत समराङ्गणसूत्रधार के सहदेवाधिकाराध्याय पर चिन्तन किया जाए, तो वृक्षवास से मानव के यायावर जीवन में ठहराव आया जिसे कृषि के प्रति आस्था और विश्वास ने दृढ़ता प्रदान की। 



वृक्षविज्ञान, जिसे उद्भिजविद्या के रूप में जाना गया 


कालान्तर में यज्ञभूमि के शोधन के लिए वृक्षों का संहार किया गया, तो ऋषियों को अवज्ञान हुआ कि वृक्षों का सार ही सृष्टि के विकास में सहायक है, ऐसे में मारिषा-सोम की अवधारणा का विकास हुआ। ऋषि-मनीषा ने वृक्षों में चैतन्य की अवधारणा को भी प्रतिपादित किया। अगस्त्य, कश्यपादि ऋषियों ने वृक्षविज्ञान में प्रयोग प्रारम्भ किए और आश्रयद्रुम, मिश्रित द्रुम, सङ्करद्रुम-जैसे विचार ही नहीं दिए वरन् ऐसे प्रायोगिक चमत्कार भी सृष्टि के सम्मुख रखे। इस प्रकार ‘उद्भिजविद्या' या वृक्षविद्या’ का विकास निरन्तर रहा। कालान्तर में मानव एवं अन्य जीवनोपयोगी प्राणियों की चिकित्सा-विधियों के साथ ही साथ द्रुम व्याधि, निदान व उपचार की विधियाँ भी खोजी गईं। 'वृक्षायुर्वेद' इसी चिरन्तन चिन्तन का सुविचार है। मत्स्यपुराण सिद्ध करता है कि वेदों के साथ ही यह वृक्ष-विषयक ज्ञान भी लुप्त हो गया था, जिसे भगवान् मत्स्य ने पुनः कथन किया था। भारत में विभिन्न राजवंशों के काल में इस विषय पर लगागार कार्य होता रहा। उद्यानिकी अथवा बागवानी हमारे जनजीवन का अहम् अङ्ग रही। विष्णुधर्मोत्तरपुराण के तीसरे खण्ड में कहा गया है कि रुग्ण वृक्षों की जो यथाविधि चिकित्सा करता है, वह स्वर्गलोक को पाता है


वृक्षायुर्वेदविधिना व्याधितन्तु यथाक्रमम्। नीरुजं मानवः कृत्वा स्वर्गलोकमवाप्नुयात्॥ -विष्णुधर्मोत्तर. 3.297.18 ।


वाटिका से लेकर वास्तु तक की आवश्यकता


आज के दौर में जबकि पारिस्थितिकी के प्रति चेतना जगाने के बहुतेरे प्रयास हो रहे हैं, तब भारतीय ऋषियों के उन निर्देश की ओर बरबस ध्यान जाता है जबकि हमारे यहाँ वृक्षों के संरक्षण, संवर्धन तथा उनके रोपण के लिए घर से लेकर पुर-ग्राम्य योग्य वाटिकाओं के निर्माण को आवश्यक माना गया था। भारतीय अभिलेखों में यदि मौर्य-सम्राट् अशोक (267-40 ई.पू.) द्वारा सड़कों के किनारे वृक्षारोपण किए जाने की जानकारी मिलती है तो मेवाड़ वह क्षेत्र है जहाँ इसी काल में भागवत राजा सर्वतातु के शासन में चहारदीवारीयुक्त वाटिका का निर्माण हुआ। अभिलेखीय साक्ष्यों में यह प्राचीनतम और दुर्लभ प्रमाण है।


काण्वशतपथ आदि ब्राह्मणों के हवाले से ज्ञात होता है कि यज्ञ के लिए भूमि तैयार करने के लिए जहाँ गान्धार से लेकर गङ्गा के तटवर्ती प्रदेश तक की भूमि को वृक्षविहीन किया गया, वहीं वैदिक ऋषि अगस्त्य के पौराणिक जीवन-वृत्त पर विश्वास करें तो ज्ञात होगा कि वे वृक्ष-विषयक कला के प्रथम सृष्टा थे और उन्होंने इसका ज्ञान लोकजीवन या पारियात्र तथा विन्ध्याचल पर्वतमालाओं में बसे लोगों से पाया था जो इस सम्बन्ध में पूर्व चेतना रखते थे। उन्होंने लोकजीवन से ही कई भाषाओं, लिपियों को सीखा, सर्प आदि के मन्त्रों को साधा। उनके द्वारा समुद्र को घूट के रूप में पी जाने का वर्णन भी मिलता है।


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