भविष्य के लिए

दिव्या का पारा अब सातवें आसमान पर था। आँखों से अंगारे बरस रहे थे। हाथ चाँटे के लिए उठा ही था पर बच्चे की निरीह और तनाव की सूरत देखकर थम गया। उफ! कहकर वह किताब को टेबल पर पटक उठ गयी। एक तरह से उसको इशारे से मारा गया चांटा ही था। बारह साल का अर्चि सिर झुकाकर बैठ गया। न ही माँ की तरफ़ देखा और न ही कोई प्रतिक्रिया दी। दूसरी किताब आँखों के सामने खुली ही पड़ी थी। हाथ में पैन स्थिर ही था। बस टुकुर-टुकुर अक्षरों को ताक रहा था जैसे किताब के सवाल कोई गुत्थी हो और आँखों-आँखों से उनके भीतर उतरकर हल कर रहा हो। अर्चि का ये ढीठ रूप दिव्या को और चिढ़ा देता है। इसके बजाय वह रोता या रुआँसा होता, सामने कुछ कहता या माँ के उठने पर कुछ हिलता-डुलता तो शायद उसका पारा कम रहता, पर वह तो जैसे यही चाहता हैकि इस तरह बन जाऊँ तो मम्मा अपने आप झक मारकर उठ जायेगी और उसे पढ़ना नहीं पड़ेगा।



दिव्या ने दरवाजे तक पहुँचते-पहुँचते मुड़कर देखा तो पाया कि अर्चि आँखें बंद किये किताब पर सिर रखे था। वह झटके से मुड़ी फिर से डाँटने के लिये, उसका बझा-सा तनावग्रस्त चेहरा देख पिघल गई पल । कुछ पल यूं ही निहारती रही उसे। कितना भोला मासूम है, दुनियावी दौड़ से अभी निपट अनजान। ममत्व ने हिलोर ली और उसके बालों पर नरमी से हाथ फेरा। स्पर्श से झटके से आँखें खोलीं और माँ को सामने पाकर फुर्ती से किताब के पन्ने पलटते लगा। गहरी थकान से थकी आँखें दो घड़ी की नींद के एकाएक खुलने से पूरी तरह लाल बम हो चुकी थीं। बेटे पर बेहद दया उमड़ आयी। सीने से चिपटा लिया। अपनी ही माँ से इतना भय!! बेटे की पढ़ाई पर गुस्सा करनेवाली दिव्या अब पछतावा करने लगी। पर वह भी क्या करे? कल इम्तहान है और एक पाठ अभी भी याद नहीं हुआ है। शाम के बाद जब सारे सवाल-जवाब पूछ रही थी तभी उसे ये बात पता चली। घबराहट और गुस्से के मिले-जुले रूप को नियंत्रण कर फिर से वापिस पढ़ाने लगी। परीक्षा में कुछ छूट जाये ये उसे सहन नहीं। और इधर- उधर से नसीहतें भी मिलती रहती हैं कि माँ को बच्चों पर पूरा ध्यान देना चाहिये। माँ की हटक से ही बच्चे सुधरे रहते हैं। कक्षा में वैसे भी वह सातवें-आठवें स्थान पर झूलता रहता है। हरसंभव कोशिश करती है कि पहले ही सब याद कराकर रखे, लेकिन उसकी पढ़ाई के प्रति अरुचि के चलते लगातार बहानेबाजी और टालने की प्रवृत्ति के कारण इम्तहान आते-आते वह खुद तनावग्रस्त रहना शुरू हो जाती है। उठतेबैठते केवल पढ़ाना ही एकमात्र लक्ष्य रह जाता है। घर के कामों में फिर मन नहीं लगता बल्कि यूं कहें कि और कुछ भी अच्छा नहीं लगता जबसे परीक्षाओं की तिथि स्कूल डायरी में लिख दी जाती है। तब वह कई तरह की योजना बनाने लगती और तनाव बढ़ने लगता। कई कामों में कटौती कर देती है। बाहर आना-जाना यथासंभव नहीं करती, क्यूंकि उसका ध्यान वहाँ भी अर्चि पर लगा रहता है। लगता है घर समय पर पहुँच जाये तो एकाध पाठ याद करा ही देगी या फिर रिवीज़न ही सही। कुछ तो हो ही जायेगा तो दिन सार्थक हो जाये। किसी तरह पढ़ाई जैसा कुछ भी न हो तो लगता है दिन पूरा निरर्थक ही गया। और अच्छी पढ़ाई हो पाना उसे इतना खुश कर देता है जैसे कोई बड़ी खुशखबरी मिलने पर खुशी होती है। इसी कारण घर पर आनेवाले मेहमान भी धीरे-धीरे ' सुहाने कम हो गये। आये मेहमान भी जल्द चले जायें, यही कामना रहती। ये कुछ अच्छा न लगता, उसे कचोटता भी, लेकिन बच्चे के लिए अपने इस कचोटपन को वह घांटी मरोड़ पटक देती आसानी से। एक बार तो मेहमान ने यहाँ तक कह दिया कि आपकी तबियत ठीक नहीं है या कोई चिंता खाए जा रही है। काफी देर से ऐसा लग रहा है कि आप खुद में हैं ही नहीं। सच ही तो है। पर उनसे कहा तो नहीं जा सकता ये। उस दिन तो खुद से घृणा भी हुई जब उसने किसी रिश्तेदार से कुछ बातें इसलिये नहीं शुरू की कि इससे बात और बैठक लम्बी खिंच जायेगी, समय खराब होगा और इनके जाये बिना अर्चि को पढ़ाने नहीं बिठा पायेगी इसलिये हाँ...हूँ...करके बात खत्म करना ही ठीक लगा। उन दिनों देव ने इशारा भी किया था कि तुम किसी मनोरोग से ग्रस्त न हो जाओ। इन्हीं बातों के चलते रिश्तेदारों के प्रति अपनापन कम होने लगा और दोस्त-सहेलियों की संख्या में कमी हुई। पर वह इन बातों पर गौर नहीं करती। बच्चे के लिए बहुत कुछ करते हैं माँ-बाप। यही बात उसकी व्यावहारिक गुलतियों पर पर्दा डाल देती या जान-बूझकर डलवा देती।


जब कभी लगता कि तैयारी ठीक है तो जैसे सीने पर से मनों बोझ पलभर में काफूर हो जाता है। वह खुश रहती। इससे तो बेटा भी कुछ सहज हो जाता। भय कम हो जाता। देव भी थोड़ी बोलने की जगह पा जाते और घर का पूरा वातावरण हलका-फुलका हो जाता। नहीं तो तीन जनों के परिवार में ही मायूसी-उदासी छायी रहती। उसके मूड पर ही घरभर का मूड निर्भर होता, यह बात वह काफी पहले ही समझ चुकी है, पर...। देव उसे खूब समझाते कि बच्चे पर पढ़ाई का इतना दबाव मत रखो। उसे सहज ही पढ़ने दो अपनी रुचि से। दबाव के नतीजे अच्छे नहीं होंगे। होंगे तो भी फलदायी या प्रभावी नही होंगे। ये बातें तुम नहीं जानती हो क्या? वह खुद भी तो सिविल इंजीनियरिंग कर चुकी है। पढ़ाई और इम्तहान के दबाव-तनाव झेल चुकी है। जानती है कि उम्मीदों को झेलना और पूरा करना कितना कठिन है। पर वह भी क्या करे। उसके समय इतनी रस्साकशी नहीं थी, प्रतियोगिता नहीं थी। कॉलेज में जाते-जाते कहीं कॅरियर की दिशा तय होती थी। पर अब तो स्कूलों में ही कॅरियर के हिसाब से विषय लेने और उस पर विशेषज्ञता प्राप्त कर लेने का ज़माना है। श्रेष्ठ को भी नौकरी तो दूर की बात है, केवल अच्छे स्कूल और कॉलेज में दाखिला ही मिल पाता है। शत- प्रतिशत धारियों की कमी नहीं है। लगता है सदियों से जीन्स में बसी मानव की प्रतिभा में अब विस्फोट हो गया हो इसी युग में। आगे की लड़ाई सौ फीसदियों के बीच ही रहती है। शेष तो न जाने कहाँ पतझड़ के पत्तों की तरह झड़कर इधर-उधर हो जाते हैं। कितनी ही छोटी नौकरियों में कई डिग्रीधारी अपनी उमर के दिन पूरे करते दिखाई देते हैं और प्रतिभा का कुछ यूँ ही मरना होता है। उनमें दुनिया के लिए कितनी निराशा भर जाती है कि सोचकर ही भय लगता है उनकी मनोस्थिति से। युग का ऐसा काला चेहरा सचमुच ही डराता है, सवाल खड़े करता है। ऐसे समय में अपने बेटे को पीछे कैसे रह जाने दें। जी-जान से जोर लगाकर अपनी शत-प्रतिशत समझ को अपने इकलौते बेटे पर न्यौछावर करना चाहती है। उसके अलावा उसे और काम ही क्या है? और हो तो भी वह क्यूं रखे काम? बेटे का भविष्य सबसे पहले है।


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