गाँव बचेंगे, तभी सभी बचेंगे

हमारे देश की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी गाँवों में निवास करती है। परन्तु दिन- प्रतिदिन यह औसत कम होता जा रहा है। बढ़ती महंगाई तथा खेतों- उलटी खलिहानों की कमी, लोगों को अपना की लोगों को घर छोड़ने पर विवश कर रही है। देश का विस्तृत ग्रामीण क्षेत्र अनेक बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। वैसे तो हमारे देश में किसान को अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा गया है, लेकिन इसी रीढ़ का दिन- प्रतिदिन कमजोर होना देश के लिए एक भयावह समस्या के संकेत है। बड़े परिवार और आमदनी कम होने के कारण कर्ज में डूबते लोगों को शहरों में जाकर अधिक धन कमाने की लालसा बढ़ती जा रही है; क्योंकि खेतों में हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी फसल का उचित मूल्य नहीं मिलता, जिससे वे हमेशा अभावग्रस्त जीवन ही जीते हैं। फसल उगाने से लेकर तैयार होने तक महंगे बीज, खाद, पानी, बुवाई तथा कटाई आदि में कठिन श्रम के साथ अच्छी-खासी रकम भी लगानी पड़ती है। कभी-कभी तो फसल खराब हो जाने पर या अन्य किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा के कारण फसल नष्ट हो जाने की स्थिति में तो लगाई गई लागत भी वापस नहीं आ पाती। चूंकि किसान के परिवार की छोटी-बड़ी- सभी आवश्यकताएँ फसल पर ही निर्भर रहती हैं, वे कैसे पूरी हों? ऐसे में भुखमरी की स्थिति पैदा हो जाने पर खेतों में काम करने की अपेक्षा कहीं बाहर जाकर कोई काम करके जीविकोपार्जन ही उनकी प्राथमिकता होती है। न चाहते हुए भी उन्हें अपना घर, अपना गाँव छोड़ना पड़ता है। विचार करने की बात है कि जब किसान को परिवार का पेट पालना पान ककककक भी मुश्किल हो, तो वह बच्चों की पढ़ाई, स्वास्थ्य, त्योहारों आदि के खर्चे को कहाँ से पूरा करे। चूंकि रोजगार के साधन शहरों में अधिक हैं और उनके परिश्रम का उचित मूल्य भी मिलता है, इसलिए यहाँ काम करके उन्हें परिवार चलाना सरल लगता है।



कहते हैं किसान देश का अन्नदाता है, परन्तु आज अन्नदाता ही अन्न की तलाश में भटक रहा है। यह अक्षरशः सत्य है कि हमारे देश तथा शहरों के विकास में गाँवों की अहम् भूमिका है। शहर की समृद्धता तथा भव्यता गाँव के लोगों तथा गाँव के उत्पादकों पर ही निर्भर है। शहर की बड़ी-बड़ी इमारतों के निर्माण में भी उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है, शहरों की संपूर्ण चमक-दमक में ग्रामवासियों की परोक्ष भागीदारी रहती है, गाँव से आए निर्धन व्यक्ति ही ईट, गारा, मिट्टी आदि का कठिन काम करके सहायक बनते हैं। शहर के निवासी प्रतिदिन छोटी-बड़ी जो भी उपयोग की वस्तुएँ खरीदकर सुखमय जीवन व्यतीत करते हैं, उन सभी के मूल स्रोत गाँव से ही जुड़े होते हैं, चाहे घर का फर्नीचर हो या कूलर की घास, सब्जियाँ हो या फिर अनाज- सभी कुछ गाँव से ही उपलब्ध है, अर्थात् समस्त संसाधन, वनस्पति, अर्थात् समस्त संसाधन, वनस्पति, खनिज और इनसे जुड़े उत्पाद मूलतः सब गाँव में ही हैं। शहरों में ग्रामवासियों द्वारा उत्पादित संसाधनों का मात्र प्रबंधन होता है, परन्तु उत्पादक की भागीदारी तो नगण्य रहती है। आजकल की युवा पीढ़ी तो वैसे भी खेती-किसानी से दूर होती जा रही है। उन्हें खेतों की धूल-मिट्टी, से, घर से कहीं ज्यादा की साफ-स-मोटी नौकरी गाय-भैंस के गोबर आदि से दूर, शहर की छोटी-मोटी नौकरी ज्यादा लाभप्रद लगती है। उन्हें शहर की साफ-सुथरी जिंदगी, गाँव की मलिन जिंदगी से कहीं ज्यादा आकर्षित करती है और वे अपने ही खेतों से, घर से बेगाने से हो जाते हैं। जबकि गाँव के विकास के लिए सरकार ने अनेक योजनाएँ चला रखी हैं, परन्तु समस्त ग्रामीण उनका पूरा लाभ उठाने में असमर्थ हैं। कुछ लोग अशिक्षा, कम जानकारी होने के कारण इन योजनाओं के लाभ से वंचित रह जाते हैं। वहीं कुछ किसान नये-नये प्रयोग करके अधिक धन पैदा करके सुखमय जीवन जीते है और सम्मानित भी होते हैं। परन्तु वे संख्या में बहुत ही कम हैं।


शहरी जीवन से प्रभावित होकर आज बहुत-सी महिलाएँ भी पुरुषों के साथ जाकर शहरी जीवन जीने लगीं है, परन्तु वे अनजाने में अपना अस्तित्व ही खो रही हैं। निरक्षर या कम पढ़ी होने के कारण उन्हें कोई बड़ा काम या नौकरी मिलना असंभव होता है। ऐसे में शारीरिक श्रम ही करना उनकी विवशता होती है। वे सुबह-शाम घर का काम निपटाने के साथ पुरुषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर बाहर भी काम करती हैं। दोगुना श्रम करने के बाद उनके परिश्रम को कम ही आँका जाता है और पुरुषों की अपेक्षा पारिश्रमिक भी कम ही मिलता है। अतः वे मन तथा तन- दोनों से निर्बल होती जाती हैं। स्त्री-मन हमेशा ही सामाजिक क्रियाकलापों से प्रभावित होता है। गाँव के छोटे-बड़े सभी कार्यों तथा उत्सवों में शामिल होना, समारोहों में नृत्य-गायन, साज-सज्जा आदि स्वाभाविक गुण उनमें कूट-कूट कर भरे होते हैं जो कि शहर में पैसा कमाने की होड़ में नगण्य हो जाते हैं। गाँव के अपनेपन से दूर एकाकी जीवन नीरसता से भर जाता है जो तनाव का कारण बनता है और स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। यदि महिलाएँ शहर जाने की लोलुपता छोड़कर गाँव में ही कक कोई-न-कोई कुटीर उद्योग अपना लें, तो वे अपने जीवन सुरक्षित बना सकती हैं। आजकल तो गाँव में भी अनेक ग्रामोद्योग-योजनाएँ विकसित हैं। उनमें से कोई एक योजना अपनाकर उद्यमी बन सकती हैं। इस प्रकार अपने जीवन को उज्ज्वल बना सकती हैं।


यदि देखा जाए तो वास्तविक जीवन गाँव में ही है, गाँव से ही देश की शुरूआत है; परन्तु यह खेद का विषय है कि गाँवों के आधे से ज्यादा घरों में ताले लटक रहे है जो देश की गरीबी का मजाक उड़ाते से प्रतीत हो रहे हैं। जहाँ लोगों की चहल-पहल, बच्चों की खिललिाहट पूँजती थी, अब वहाँ घोर सन्नाटा पसरा है, जहाँ चारों ओर हरियाली-खुशहाली का वातावरण रहता था, अब वह सभी जगहें वीरान पतझड़ के बाद खाली खड़े ढूँठ की भाँति लगती हैं। कहने का तात्पर्य है कि चाहे घर का मुखिया हो या युवा या महिलाएँ, सभी अपना घर-गाँव छोड़कर अपनी जमीनी ताकत से दूर हो रही हैं। गाँव की हरियाली, गाँव की सम्पन्नता देश की उन्नति के लिए अत्यन्त आवश्यक है। देश को बचाने के लिए गाँव को बचाना और गाँव को बचाने के लिए किसान को बचाना आवश्यक है। ऐसे में हम सभी की जिम्मेदारी है कि किसानों की आवश्यकताओं को समझें, उनका उत्साह बढ़ायें, उनका सम्मान करें और उन्हें गाँव के स्वच्छ शान्त वातावरण में ही रहने के लिए प्रेरित करें, क्योंकि देश के विकास का भार उन्हीं के कन्धों पर हैं।