ज्योतिष और वनस्पति

वनस्पतियों का ज्योतिष से अत्यन्त प्राचीन सम्बन्ध है। हमारे प्राचीन ऋषियों ने ज्योतिष को वनस्पतियों से जोड़ रखा है, जैसे कि हमारे नवग्रह, जो खगोल-ज्योतिष के आधार- स्तम्भ हैं, के निमित्त उपयोग में आनेवाली वनस्पतियों का शास्त्रों में कुछ इस तरह का वर्णन प्राप्त होता है, यथा- सूर्य ग्रह की अनुकूलता प्राप्त करने के लिए रत्न के स्थान पर बिल्व के मूल को विशिष्ट ज्योतिषीय योग रविपुष्य योग में ग्रहण कर उस पर सूर्य के वैदिकादि मन्त्रों से पूजन कर तथा मन्त्रों से अधिमंत्रित कर इसी योग में दाहिनी भुजा में अथवा गले में धारण करने से व्यक्ति को सूर्य का रत्न माणिक्य धारण करने के समान लाभ प्रदान करता है।



चूंकि रत्नादि मूल्यवान् सामाग्रियों का लाभ सभी नहीं प्राप्त कर पाते हैं, किन्तु वे लोग शास्त्रविहित मुहूर्त में वनस्पतियों के अंग विशेष (मूल) को ग्रहण कर इनका लाभ-प्राप्त कर सकते हैं। चन्द्रग्रहण के लिए वनस्पति जगत् में खिरनी के मूल को ग्रहण कर मन्त्रों से अभिमंत्रित कर चन्द्रग्रहण की अनुकूलता तथा बल-प्रदान हेतु धारण किया जा सकता है, किन्तु यह ध्यान रहे कि शुभ मुहूर्त में ही इनको ग्रहण करें। शुभवेला में ग्रहित मूल अपने पूर्ण प्रभावयुक्त होते हैं तथा उक्त ग्रहों को विशेष प्रतिनिधित्व के द्वारा अनुकूलता में सहायक होते हैं।


मंगल के लिए अनन्तमूल को ग्रहण किया जाता है तो बुध के लिए शास्त्रों में विधारा के वृद्ध मूल को बताया गया है। देवराज बृहस्पति के लिए वभनेठी भांरगी को ग्रहण किया जाता है। शुक्र ग्रह की अनुकूलताप्रदायक मूल में मजीठ के मूल को बताया जाता है। शनि ग्रह के लिए श्वेत विरैला अम्ल वेल की मूल तो वहीं राहु के लिए श्वेत चन्दन और केतु के लिए असगन्ध ग्रहण करना व धारण करने का विधान हमारे शास्त्रों में उल्लिखित है। इन मूलों से अपने ग्रहों से सम्बन्धित ऊर्जा की प्राप्ति होती है।


आज का विज्ञान अभी इन्हें पूर्णतया तो नहीं परख पाया है, तथापि जितना भी इनके गुणों का मिलान किया, तो अक्षरशः सटीक सिद्ध हुए हैं। शास्त्रों में भी परख के कुछ तथ्यों का वर्णन है। उदाहरणार्थ- बिल्व वृक्ष को सूर्य से योजित करने के लिए कहा गया है कि सूर्य की किरणें मौसम के अनुरूप जैसे परिवर्तित होती हैं किन्तु पूर्णतया समाप्त नहीं होतीं, इसी प्रकार बिल्व वृक्ष पर भी परिवर्तनों का प्रभाव तो होता है किन्तु बिल्व पूर्णतया पत्रहीन कभी नहीं होता। बिल्व वृक्ष पर पतझड़ मौसम का प्रभाव नहीं होता।


ज्योतिष में सूर्य पंचम राशि का स्वामी है तथा शरीर में पंचम अंग पेट का प्रतिनिधित्व करता है। बिल्व का भी पेट से गहरा सम्बन्ध है। पेट में किसी भी प्रकार का दोष हो तो उस दोष का निवारण करने में बिल्व की समानता करनेवाली कोई वनस्पति नहीं है। हमारे प्राचीनतम ऋषियों ने अपनी यौगिक शक्तियों से जिनजिन वस्तुओं की परख की है, वे अपने पूर्ण क्षमता में आज भी विद्यमान हैं। उन ऋषियों की किसी भी खोज को आज का विज्ञान भी सहर्ष स्वीकार करता है, यथा- हमारे ऋषियों ने अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के लाभ पर अनुसन्धान किया है और बताया है कि वह पालनहार विष्णुस्वरूप है। आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है कि पीपल वृक्ष से प्राणवायु (ऑक्सीजन) बहुत मात्रा में प्राप्त होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि पालनहार विष्णु से जोड़ने के पीछे जो रहस्य हमारे ऋषियों ने आज से लाखों वर्ष पूर्व ही पीपल की गुणवत्ता पहचान ली थी।


इसी प्रकार ज्योतिष से सम्बन्धित ग्रहों से या उनके गुणवत्ता हेतु जिन वनस्पतियों को ग्रहण किया है, उनका विवरण ऊपर बताया गया। इन वनस्पतियों की प्रयोग-विधि कार्य के अनुसार अलग-अलग तरीकों से शास्त्रों में वर्णित है।


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