कृषि-देवता हलधर बलराम

भगवान् विष्णु के 24 अवतारों में परिगणित, शेषावतार तथा भगवान् श्रीकृष्ण के बड़े भाई भगवान् बलराम, कृषकों के देवता हैं। वे हमें विकसित खेती करने और धन-धान्य से परिपूर्ण होकर हमें वैभवसंपन्न जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं।


बलराम वसुदेव और रोहिणी के पुत्र थे। वसुदेव-देवकी कंस के कारागार में बन्दी थे। उसी समय देवकी गर्भवती हुई, तथा बलराम उनके गर्भ में सात महीने रहे। इसके बाद योगमाया से वह वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में चले गए, जो उस समय गोकुल में थीं। वहीं इनका जन्म हुआ। तब से इनका नाम ‘संकर्षण' पड़ा।



ये देखने में अत्यन्त सुन्दर थे, सबके मन में रमे रहते थे, इसलिए महर्षि गर्गाचार्य ने इनका नाम रखा राम। बलपौरुष के कारण उन्हें बलराम कहा गया। गर्गाचार्य ने कहा कि जब प्रलयकाल में सबकुछ समाप्त हो जाता है, तब भी ये शेष रहते। हैं, अतः ये शेष हैं। ये हमें इस सत्य का दर्शन कराते हैं कि यूनान, मिस्र, रोम आदि सब विविध झंझावातों में मिट गये, किंतु हम शेष हैं। वर्तमान और भविष्य के झंझावातों में अडिग, अविचल रहने के आत्मविश्वास की प्रेरणा देते हैं। ये बलराम हैं, किसानों को संगठित होकर बलवान होने की प्रेरणा देते हैं। जयदेव ने 'गीतगोविन्द' में लिखा है, 'केशव धृतहलधर रूप धरे, जय जगदीश हरे', अर्थात् जगदीश्वर ने ही हलधर बलराम का रूप धारण किया है। समीकरण-नियम से हम कह सकते हैं। कि, हलधर ही जगदीश्वर है, अर्थात् किसान ही भारत का जगदीश्वर है, भाग्यविधाता है।


भगवान बलराम् का आयुध हल कृषि अर्थात् अर्थ का, धनशक्ति का प्रतीक है, तो उनका मूसल बल अर्थात् संगठन-शक्ति का, अर्थात् जनशक्ति का प्रतीक है। उनका हल नवनिर्माण का, नवरचना का प्रतीक है, तो उनका मूसल दुष्ट-दमन का, सृजन- संरक्षण के आश्वासन का प्रतीक है।


बलराम ने अपने अनुज कृष्ण के साथ अवन्तिका में महर्षि सान्दीपनि के यहाँ वेदविद्या, ब्रह्मविद्या तथा अस्त्र-शस्त्रादि की शिक्षा प्राप्त की। जरासंध का वध करने के लिए इन्होंने तपस्या करके संवर्तक नामक हल एवं सौनन्द नामक मूसल प्राप्त किया था। रेवती से उनका विवाह हुआ। बलराम दुर्योधन और भीम के गदायुद्ध के आचार्य थे। एक बार हस्तिनापुर में कौरवों से उनका घोर युद्ध हुआ था जिसमें उन्होंने क्रोध में आकर अपने हल की नोक से हस्तिनापुर को घुमाकर उसे टेढ़ा-मेढ़ा कर दिया था।


महाभारत-युद्ध के समय वे तटस्थ होकर तीर्थयात्रा करने चले गए थे। उनकी तीर्थयात्रा का विस्तृत वर्णन भागवतपुराण और महाभारत के शल्यपर्व में प्राप्त होता है। तीर्थयात्रा से लौटकर भीम-दुर्योधन गदायुद्ध उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। यदुवंश के संहार के बाद उन्होंने प्रभास क्षेत्र में समुद्र-तट पर आसन लगाकर यौगिक मार्ग से देहत्याग किया। इनकी लीलासंवरण के पश्चात् इनके मुख से एक विशालकाय श्वेत सर्प निकला जो प्रभास के समुद्र में विलीन हो गया। पुरी के जगन्नाथ मन्दिर में अनुज श्रीकृष्ण और बहन सुभद्रा के साथ बलरामजी की भी काष्ठ-प्रतिमा है।