कृषि की सनातन परम्परा

ऋग्वेद का ‘अक्षसूत्र यह स्पष्ट करता है कि मानव को ज्ञात हो गया था कि व्यर्थ के विवाद, जुआ इत्यादि को छोड़कर कृषि करना ही उत्तम है, कृषि जीवन का सार है और यज्ञजैसी संस्थाओं की अत्यधिक निर्भरता भी इसी पर सम्भव है।


कृषि के प्रति चेतना ने मानव को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण सोपान की सृष्टि की। यह मानव का अपने समाज पर उपकार करनेवाली सर्वाधिक चमत्कृत करनेवाली सोच भी है और आविष्कार भी। क्योंकि, ऋग्वेद का ‘अक्षसूत्र' यह स्पष्ट करता है कि मानव को ज्ञात हो गया था कि व्यर्थ के विवाद, जुआ इत्यादि को छोड़कर कृषि करना ही उत्तम है, कृषि जीवन का सार है और यज्ञ-जैसी संस्थाओं की अत्यधिक निर्भरता भी इसी पर सम्भव है। ऋषि ने उपदेश किया है कि द्यूतकर अर्थात् जुए में सर्वस्व खोनेवाले व्यक्ति अपने शकल- पांसों का छोड़कर खेती-बाड़ी की राह अंगीकार करें, क्योंकि यही श्रेष्ठ और कर्तव्यभूत है



अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित् कृषस्व। -ऋग्वेद 10.34.7


यह वैदिक निर्देश मानवमात्र के प्रति था। वैदिक ऋषियों ने निश्चित रूप से कृषि-संस्कृति को प्रोत्साहित किया और व्यर्थ के कार्यकलापों की अपेक्षा आवश्यक जीवन-योग्य नीति- निर्देशन किया। मानवमात्र को समझा दिया कि अन्न से बड़ा कौन है, अन्न ही सर्वस्व है। तैत्तिरीय उपनिषदकार को यही कहना पड़ा- अन्नं वै ब्रह्म (3.2)। अर्थात् ब्रह्म अन्न ही है। 


जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्याः। (12.1.22)


अथर्ववेद की अधिकांश सर्जनात्मक पृष्ठभूमि वर्तमान राजस्थान और पंजाब के क्षेत्रों की है, जहाँ सरस्वती नदी प्रवहमान थी। इसकी तटवर्ती भूमि पर्याप्त उपजाऊ थी और वह बीजों का क्षरण नहीं करती थी। वह उगाए गए एक बीज को शत-शत रूप में लौटाती में समर्थ थीं। अथर्ववेद के एक मन्त्र (6.30.1) में आया है कि इस गुण को देखकर किनाश (किसान का मूल शब्द) अपने राजा (नायक-इन्द्र) के रूप में आगे आए। किसान के रूप में समस्त लोग ‘मरुद्गण' थे जिन्हें ‘मरुवासी' कहने में कोई अतिरञ्जन नहीं होगा। ये लोग निश्चित ही मरु के बढ़ते प्रभाव से त्रस्त थे और वनारण्यों के विनाश से फलादि का संकट आसन्न देख रहे थे। उन्होंने सोत्साह सरस्वती के प्रवाह क्षेत्र में यव अर्थात् जौ की बुवाई की। इस तरह जौ ही बुवाई के रूप में पहला अनाज था। यह वैदिक धान्य है जिसे विष्णुपुराणकार ने ग्राम्य ओषधि के रूप में भी स्वीकार किया है। बाद के पुराणकारों ने उसे धान्य के रूप में स्वीकृत किया है।


पुराणकारों का मत है कि इस प्रकार प्रजा ने जीविका के साधन रूप कृषि तथा कला-कौशलादि की रचना की थी। धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी, ज्वार, कोदो, छोटी मटर, उड़द, मूंग, मसूर, बड़ी मटर, कुलथी, राई, चना और सन- ये सत्रह ग्राम्य ओषधियों की जातियाँ हैं। ग्राम्य और वन्य- दोनों प्रकार की मिलाकर कुल चौदह ओषधियाँ याज्ञिक मानी गई हैं। इनमें से धान, जौ, उड़द, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी और कुलथी सहित साँवा, नीवार, वनतिल, गवेधु, वेणुयव और मर्कट-ये चौदह ग्राम्य व वन्य ओषधियाँ यज्ञानुष्ठान की सामग्री बताई गई हैं। (विष्णुपुराण, 1.7.21-26)।


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