'मदर इण्डिया' आजाद भारत के किसान की दुर्दशा का सटीक चित्रण करती फिल्म

भारत की सर्वश्रेष्ठ एवं सदाबहार फ़िल्मों में सुपरहिट हिंदी फ़िल्म 'मदर इण्डिया' का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। 40 लाख की लागत से 1957 ई. में बनी 'मदर इण्डिया' 1940 ई. में बनी 'औरत' फ़िल्म का रीमेक है। सुप्रसिद्ध निर्माता- निर्देशक महबूब खान ने इन दोनों फिल्मों का निर्माण किया। उन्होंने अमेरिकी लेखिका कैथरीन मायो (1867-1940) की 1927 की पुस्तक 'मदर इण्डिया' को चुनौती देने तथा अनर्गल तथ्य को लोगों के मस्तिष्क से ओझल करने के लिए अपनी फिल्म का नाम 'मदर इण्डिया' रखा। पुस्तक में भारत की स्वाधीनता की मांग के विरोध में यहाँ की संस्कृति, धर्म और समाज पर गलत ढंग से प्रहार किया गया था। महात्मा गाँधी सहित कई नेताओं ने इसका विरोध किया था। मायो की पुस्तक के विरोध में कई पुस्तकें एवं प्रतिक्रियाएँ प्रकाशित हुईं। महबूब खान ने एक अन्य अमेरिकी लेखिका पर्ल एस. बक (1892-1973) की पुस्तक 'द गुड अर्थ' (1931) तथा 'द मदर' (1934) से प्ररेरित होकर 'औरत' फिल्म के निर्माण में कुछ नये प्रयोग किए। 'औरत' फिल्म की कहानी में परिवर्तन कर ‘मदर इण्डिया' की स्क्रिप्ट तैयार की गयी।



'मदर इण्डिया' फिल्म को स्वातन्त्र्योत्तर भारत के तत्कालीन समाज का वास्तविक चित्रण प्रस्तुत करने में अपार सफलता मिलीयथार्थ कहानी, शानदार पटकथा, सुन्दर दृश्य, हृदय की गहराइयों में उतरनेवाले संवाद, सिचुएशन पर आधारित मन को झंकृत एवं प्रभावित करनेवाले गीत और कर्णप्रिय संगीत इस फिल्म को अतिविशिष्ट बनाने में सहायक और समर्थ हैं। जिस तरह साहित्य समाज का दर्पण है, उसी तरह 'मदर इण्डिया' फ़िल्म समाज के वास्तविक यथार्थ का चित्रण करने में सक्षम है। फ़िल्म के पात्रों (कलाकारों) का प्रभावी अभिनय फिल्म को विश्वसनीय एवं जीवन्त बनाता है।


भारतीय नारी की जटिल एवं विषम परिस्थितियों में जिजीविषा, ग्रामीण संस्कृति की निश्छलता, सूदखोरी, महाजनी व्यवस्था का वीभत्स रूप, गिरावट, अनैतिकता, अशिक्षा, शोषण, शोषण के विरुद्ध विद्रोह, नारी की इज्जत-अस्मिता पर संकट, किसी की बेटी को पूरे गाँव की इज्जत मानना, नारी की इज्जत बचाने के लिए स्वयं अपने बेटे को गोली मारकर नारी के बलिदान का चरम रूप प्रस्तुत करना आदि दृश्य 'मदर इण्डिया' फिल्म को कला के उच्चतम शिखर पर पहुँचा देते हैं। इस फ़िल्म में कई संदेश हैं- भारतीय जीवन-मूल्यों में सच को सच मानना, अन्याय-शोषण का प्रतिकार करना, नारी की इज्जत की रक्षा करना आदि जीवनमूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता को स्पष्टता से उजागर करता है। फ़िल्म में इनका सफल फिल्मांकन किया गया है।


गाँव में नहर का उद्घाटन एक वृद्धा राधा चाची (नरगिस) से करवाया जाता है। कहानी फ्लेशबैक में है। राधा भावुक होकर अपने जीवन के अतीत में डूब जाती है। शामू (राजकुमार) की पत्नी राधा नयी-नवेली दुल्हन के रूप में सुंदर चाची की बहू (पूरे गाँव की सबसे सुंदर बहू) बनकर आती है। ससुराल में उसका भरपूर स्वागत होता है। राधा को पता लगता है कि उसकी सास ने विवाह के लिए अपनी जमीन सुक्खी लाला (कन्हैया लाल) के पास गिरवी रखकर रुपए लिए थे। वह अपने पति को गहने बेचकर जमीन छुड़ाने के लिए कहती है। उसका पति आश्वासन देता है कि तीनचार फसलों को बेचकर लाला का कर्ज चुका दिया जायेगा। कर्ज में फंसकर शोषण का शिकार बनना गाँववालों की विडम्बना है। सूदखोरी तथा महाजनी व्यवस्था का इतना सटीक और यथार्थ वर्णन फ़िल्म को उत्कृष्ट ही नहीं, कालजयी भी बनाता है।


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