सांड को वश में कटने का अद्भुत खेल जल्लीकट्टू

जल्लीकट्टू तमिलनाडु का चार सौ वर्ष से भी पुराना पारम्परिक खेल है, जो फसलों की कटाई के अवसर पर पोंगल (15 जनवरी) के समय आयोजित किया जाता है। इसमें 500- 1,000 किलो के सांड़ों की सींगों में सिक्कों की थैली या नोट फँसाकर रखे जाते हैं और फिर उन्हें भड़काकर भीड़ में छोड़ दिया जाता है, ताकि लोग सींगों से पकड़कर उन्हें काबू में करें । पराक्रम से जुड़े इस खेल में विजेताओं को नकद इनाम इत्यादि भी देने की परंपरा है। मदुरै में यह खेल तीन दिनों तक चलता है।



जल्लीकट्टू त्योहार से पहले गाँव के लोग अपने-अपने सांडों से अभ्यास करवाते हैं। मिट्टी के ढेर पर सांड अपने सगे रगड़कर जल्लीकट्टू की तैयारी करता है। सांड को खुटे से बांधकर उसे उकसाने की प्रैक्टिस करवाई जाती है ताकि उसे गुस्सा आए और वो अपनी सींगों से वार करे।


क्या हैं जल्लीकट्टू खेल के नियम?


खेल के शुरू होते ही पहले एक-एक करके तीन सांडों को छोड़ा जाता है। ये गाँव के सबसे बूढ़े सांड होते हैं। इन सांडों को कोई नहीं पकड़ता, ये सांड गाँव की शान होते हैं और उसके बाद शुरु होता है जल्लीकट्टू का असली खेल।


कितनी पुरानी है जल्लीकट्टू परंपरा?


तमिलनाडु में जल्लीकट्टू अत्यन्त पुराना खेल है जो पहले योद्धाओं के बीच लोकप्रिय था। प्राचीन काल में कन्या अपने लिए वर चुनने के लिए जल्लीकट्टू खेल का सहारा लेती थी। जल्लीकट्टू खेल का आयोजन स्वयंवर की तरह होता था। जो कोई भी योद्धा सांड पर काबू पाने में कामयाब होता था, उसे ही कन्या अपने वर के रूप में चुनती थी। जल्लीकट्टू खेल का ये नाम ‘सल्लीकासू' से बना है। सल्ली का मतलब सिक्का और कासू का मतलब सींगों में बंधा हुआ। सींगों में बंधे सिक्कों को हासिल करना इस खेल का मुख्य उद्देश्य होता है। धीरे-धीरे सल्लीकासू का नाम जल्लीकट्टू हो गया।


जल्लीकट्टू और बुलफाइटिंग में अंतर


कई बार जल्लीकट्टू के इस खेल की तुलना स्पेन के खेल बुलफाइटिंग से भी की जाती है, लेकिन जल्लीकट्टू स्पेन के खेल से काफी अलग है। जल्लीकट्टू में सांड को मारा नहीं जाता और न ही उसको काबू करनेवाले युवक किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल करते हैं। वर्ष 2014 में उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु में जल्लीकट्टू त्योहार (सांड को वश में करने का खेल) पर रोक लगा दी थी, लेकिन तमिल लोगों के भारी विरोध के बाद न्यायालय ने अपना आदेश वापस ले लिया है।