हमारे देश की विविध रंग- बिरंगी, परन्तु एकात्मक संस्कृति में विविध प्रकार के बने व्यञ्जन (मिठाई) काफी प्रसिद्ध हैं। इसी क्रम में राजस्थान के हृदय-स्थल माने जानेवाले अजमेर नगर में एक ऐसी मिठाई बनती है जिसकी सुगन्ध अतीत से आज तक सात समन्दर पार पहुँचती रही है और इस मिठाई का नाम है 'सोहनहलवा' ।
इस मिठाई के निर्माण की भी एक रोचक कथा है। दरअसल इस हलवे के साथ अजमेर के प्रत्येक परिवार की आस्था जुड़ी है और वे तथा बाहर से आनेवाले पर्यटक, | श्रद्धालु इसे यहाँ के प्रसिद्ध सूफी संत मोइनुद्दीन चिश्ती के प्रसाद के रूप में स्वीकार करके खरीदकर अवश्य ले जाते हैं। परन्तु इसकी वास्तविकता कुछ अलग है। लेखिका द्वारा लिए सामुख्य साक्षात्कार के अनुसार, किविदन्तियों में कहा जाता है कि अजमेर में सोहनहलवे की ऐतिहासिकता को लेकर कई बातें प्रचलित हैं। अनेक विद्वानों के मतानुसार यह मिठाई विदेशी तथा सैकड़ों साल पुरानी है, तो कोई इसे भारत में ही निर्मित राजसी मिठाई बताता है। एक बात यहाँ यह भी प्रचलित है कि शाहआलम द्वितीय (1759-1806) के समय अजमेर में मिठाई के रूप में सोहनहलवा बनाया गया था और इसका उत्पत्ति-देश अफगानिस्तान माना गया। एक किंवदन्ती है ऐसी भी है। कि इस मिठाई का बनना 16वीं शती में मुगल-शासक हुमायूँ के काल से माने जाने की बात कही जाती है। कुछ लोग इस मिठाई को पर्शियन हलवे के नाम से भी जानते हैं। परन्तु ये सब किविदन्तियाँ और इनमें बड़ा आपसी भ्रम एवं मतान्तर है।
कुछ विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार इस मिठाई को प्रथम बार भारत के उत्तरप्रदेश के बांदा नगर से उत्पत्ति के तौर पर माना गया है तो कुछ सूत्र यह बताते हैं कि यह मिठाई सन् 1790 ई. में राजस्थान के लाला सुखलाल जैन द्वारा दिल्ली में ‘घंटेवाले हलवाई' के नाम से पहली बार चांदनी चौक में बनाई गई थी। यह दुकान तब से 2015 ई. तक सतत रूप से दिल्ली में संचालित रही।
व्युत्पत्ति- सूत्रों के अनुसार ‘हलवा' या 'हलावा' शब्द अपने तत्सम रूप के कारण इस प्रकार की धनी मिठाई को सन्दर्भित करनेवाला माना जाता है। इसे दक्षिण-पूर्व एशिया, मध्य एशिया, उत्तरी अफ्रीका का बाल्कन प्रदेश, पूर्वी यूरोप, माल्टा द्वीप में खाने के लिए प्रस्तुत किया जानेवाला माना जाता है। ऐसा भी माना जाता है कि 'हलवा' शब्द यहूदी-भाषा का था जो 1840-1850 ई. के मध्य अंग्रेजी-भाषा में आया। इसी क्रम में ‘हलावा' शब्द रोमानिया से, ‘हेलवा' शब्द तुर्किस्तान से और ‘अलहलवा' शब्द मिठाई के रूप में अरबी-भाषा से आया।
सोहनहलवे की वास्तविकता- दरअसल भारतीय संस्कृति में गेहूँ की बालियाँ हमारी कृषि का मुख्य केन्द्र रही हैं। गेहूँ को हजारों वर्षों से भारतीय कृषि में मान्यता दी गई है और इसी गेहूँ के दानों से बने आटे से सोहनहलवा बनाया जाता रहा है जो कुछ चिकना (जिलेटिनी) होता है। यह हलवा अंकुरित गेहूँ के आटे द्वारा विभिन्न कष्टसाध्य प्रक्रिया से गुजरते हुए बनाया जाता है। अतः इस ठोस आधार पर इसके पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुख्य वर्तमान निर्माणकर्ता अजमेरवासी सेठ मूलचन्द बुधामल के वंशज संजय गुप्ता बताते हैं कि सन् 1850 के बाद सोहनहलवे की विधि प्रथम बार उनके उक्त वंशज अजमेर लेकर आये थे। सेठ बुधामल ने अजमेर की धरती पर सर्वप्रथम इस हलवे को सन् 1870 ई. में तैयार किया और अपने परिश्रम के बल पर इसमें गुणवत्ता समाहित कर प्रसिद्ध बनाया।
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