सद्वृत्ति का त्योहार होली

होली का त्योहार प्राचीन काल से मनाया जा रहा है। होली सख़्त अनुशासन और शिथिल स्वेच्छाचार के बीच का वह मध्यम-बिन्दु है जो ढूँढ़ सके, वही होली के उत्सव का जी भरकर आनन्द प्राप्त कर सकता है। होली का उत्सव वसन्त के आगमन के स्वागत का उत्सव है। होली एवं दीपावली एकदम विपरीत व्यवहार के त्योहार हैं। होली शूद्रवर्ण तो दीपावली वैश्यवर्ण होती है। वर्ण-प्रधानता से अभिप्राय जाति बंधन नहीं है अपितु चतुर्थर्णात्मिका शक्तियाँ, जो प्रत्येक मनुष्य पक मनुष्य में रहती हैं, उन पर्वो पर वैसी शक्तियों का विशेष प्रादुर्भाव बना रहता है।


 


होली के रंग को लेकर आनेवाला फाल्गुन हमें नवजीवन का संदेश देता है। होली के उत्सव के लिए कही जानेवाली कहानी में हिरण्यकश्यप नामक एक असुर था, उसे सर्वत्र हिरण्य (कनक) याने सुवर्ण ही दिखाई देता था। असुर का अर्थ है सुर यानि सात्त्विक वृत्तियों से सर्वथा विपरीत ‘खाओ, पिओ और मौज करो' वाली मनोवृत्ति का मानव भोग के सिवा कुछ करे ही नहीं और स्वार्थ के सिवाय कदम आगे बढ़ाए नहीं। स्वयं को भगवान् समझनेवाला हिरण्यकश्यप दूसरे भगवान् को कैसे स्वीकार करता। लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद जन्म से ही भगवान् विष्णु का परम भक्त था और सदैव उन्हीं का ध्यान व स्मरण करता था। प्रह्लाद जब गर्भ में था, तब उसकी माता कयाधु देवर्षि नारद के आश्रम में रही थी, वहाँ के संस्कारों का असर प्रह्लाद पर पड़ा था। इन सबका प्रभाव हिरण्यकश्यप को सहन नहीं हुआ। उसने प्रह्लाद को तरह-तरह की यातनाएँ दी व उसे मार डालने के अनेक प्रयास भी किए, लेकिन हरिभक्त प्रह्लाद हर बार बच जाते थे। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि से न जलने का। वरदान प्राप्त था। वह नित्य ही अग्निस्नान करती थी और जलती नहीं थी। इसलिये हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका को यह आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को लेकर अग्निस्नान करे, लेकिन ऐसा करने पर भी प्रह्लाद बच गए और होलिका जलकर भस्म हो गयी। इस पौराणिक आख्यान के आधार पर होलिका दहन मनाया जाता रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि इसी दिन भगवान् श्रीकृष्ण ने पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खुशी में गोपियों ने होलिका दहन एवं पूजन और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था।


होली के दिन सायंकाल के बाद भद्रारहित लग्न में होलिका का दहन किया जाता है। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमापर्यन्त आठ दिन ‘होलाष्टक' मनाया जाता है। होली का पहला काम डंडा गाड़ना होता है। होली से काफी दिन पहले ही ये तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं, इसमें लकड़ियाँ और उपले प्रमुख रूप से होते हैं। राजस्थान में हालिका में भरमोलिये जलाने की भी परम्परा है। भरमोलिये गाय के गोबर से बने ऐसे उपले होते हैं जिनमें बीच में छेद होता है। छेद में पूँज की रस्सी डालकर माला बनाई जाती है। एक माला में सात भरमोलिये होते हैं। होली-पूजा दोपहर से विधिवत् रूप से रोली, मौली, चावल द्वारा की जाती है। जो पकवान बनाए जाते हैं, उनका भोग लगाया जाता है। इन भरमोलियों को होली में डाल दिया जाता है। इसके पीछे यह मान्यता है कि होली के साथ भाइयों पर लगी नज़र भी जल जाती है। होली अग्नि लगाते ही उस डण्डे या लकड़ी को बाहर निकाल लिया जाता है। इस डण्डे को भक्त प्रह्लाद मानते हैं। स्त्रियाँ होली जलते ही एक घंटी से सात बार जल का अर्घ्य देकर रोली-चावल चढ़ाती हैं, फिर होली के गीत तथा बधाई गीत गाती हैं। जिस लड़की का विवाह इसी वर्ष हुआ हो, वह उस वर्ष अपने ससुराल की जलती हुई होली को नहीं देखती और उस समय उसे मायके भेज दिया जाता है। जले हुए भरमोलिये की ज्योति पूरे घर में घुमाई जाती है। जिससे बीमारी का नाश होता है। होलिका जलने के बाद कुछ भरमोलिये को तथा नया धन (अन्न) उसको होली की अग्नि में सेंका जाता है तथा उसे नये धान के रूप में परिवार के सभी सदस्य खाते हैं।


आगे और------