उत्तम खेती मध्यम बान, अधम चाकटी भीख निदान

कृषि धरती की उपासना है। इसमें श्रम, सामूहिकता, सहजता तथा निष्ठा अपूर्व है। किसान की खेती में कोई बेईमानी नहीं है। कोई मिलावट नहीं है। यह शुद्ध आजीविका है। अतः कृषक (किसान) अपने शारीरिक श्रम, सबके सहयोग और प्रकृति की अनुकम्पा के साथ कृषि करता है। इसलिए कृषि पवित्र आजीविका है। किसान सहज, सरल तथा विनम्र होने के साथ कठोर परिश्रमी होता है। इसलिए इसकी मान्यता है। आज भी भारत के गाँवों की कृषि-संस्कृति सर्वमान्य है। प्रकृति से जुड़ी कृषि-संस्कृति का संरक्षण आवश्यक है।


उपर्युक्त कहावत भारत में कृषि की प्रधानता की ओर संकेतित कर रही है। यह भी कहा जा सकता है कि भारत की यह विनम्र घोषणा है। उद्योग-प्रधान युग में भी भारत के लिए यह कथन सही है। निःसन्देह भारत में खेती और किसान की महत्ता रही है। कारण है कि कृषि के कारण भारतीय, प्रकृति के निकट रह पाते हैं। सघन वन, तपोवन, कृषि-क्षेत्र, फलोद्यान, ग्राम एवं बड़े ग्राम और तब इनके बाद नगर का स्थान आता है। उपनगर के बाद नगर और अब महानगर का स्थान आता है। कुछ क्षेत्रों में बड़े उद्योगों और मझोले उद्योगों का कोलाहलपूर्ण क्षेत्र नगरों से सटा रहता है। परन्तु पहले गाँव के कुछ टोलों में गृहोद्योगों वा कुटीर उद्योगों की प्रधानता रहती है। खेती और गृहोद्योगों में एक तारतम्य रहता है। परन्तु आज यह स्थिति बदल रही है। नगरों और महानगरों ने अपना प्रसार कर दिया है। कृषि-क्षेत्र घट रहा है।



उपर्युक्त पुरानी कहावत की घोषणा स्पष्ट है। आजीविका की चार स्थितियाँ हैं। इन चारों में कृषि (खेती) को उत्तम माना गया है। दूसरा स्थान व्यवसाय-वाणिज्य का है। चाकरी यानी नौकरी को अधम माना गया है। भीख तो मानव के अधःपतन की स्थिति है। जीवन की आजीविका का यह क्रम पहले सर्वमान्य रहा है। अधम चाकरी का अर्थ सामान्य-साधारण नौकरी है। खेती, शिल्प (कारीगरी), व्यवसाय-वाणिज्य अच्छे माने गए हैं। इन तीनों में मनुष्य स्वतंत्र है। स्वाभिमानयुक्त है। उसके वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन की सामूहिकता की परिचायिकता है। खेती और उसे करनेवाला किसान अपने परिवार के साथ सम्पूर्ण प्रकृति से जुड़ा रहता है। तात्पर्य यह है कि कृषि, किसान और प्रकृति के मध्य अनिवार्य सम्बन्ध है। खेती करनेवाला किसान है। और खेती पूर्णतः धरती, आकाश, जल, हवा और सूर्य-चन्द्र पर ही निर्भर है। यह संसार और जीवों का जीवन क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर पर ही निर्भर है। और खेती इन्हीं पाँचों से हो पाती है। तात्पर्य यह है कि जीवन और खेती- दोनों उपर्युक्त पाँच से ही चलते हैं। जीवों का जीवन- इनमें मूलतः मानव जीवन तो पूर्णतः प्रकृति से संचालित है। वैसे समस्त जीव-जन्तु प्रकृति से ही निर्मित और संचालित होते ही हैं। यह इस सृष्टि का सत्य है। यह दूसरी बात है कि पश्चिम का उद्योग-प्रधान महानगर, नगर और उपनगर प्रकृति से दूर है। पर वे भी बहुत दूर नहीं हैं। प्रकृति के निकट रहने के लिए लालायित रहते हैं। उद्योग-प्रधान नगरों में जीवन घुटने लगता है। पर्वतारोहण, सागर-तट पर सूर्य-रश्मियों के मध्य बैठना-लेटना और वाटिकाओं (पार्को) में विचरण- ये सब प्रकृति से जुड़ने के ही उपक्रम हैं। और वे प्रकृति के मध्य जाने के लिए विकल रहते हैं।


स्पष्ट है कि मनुष्य प्रकृति की रचना है। प्रकृति से बहुत दूर रहना नहीं चाहता। समस्त जीविकाओं में खेती तो प्रकृति की ही उपासना है। प्रकृति में पाँच तत्त्व हैं। खेती में उन्हीं पाँच तत्त्वों की अनिवार्यता है। प्रकृति, कृषि और मानव- इन तीनों का समाहार मानव-जीवन है। इसलिए मानव प्रारम्भ से खेती करता आया है। गृहोद्योग, लघुद्योग, मध्यम और बड़े उद्योग- ये सभी प्रकृति से प्राप्त वस्तुओं से उपयोगी जीवनोपयोगी वस्तुओं का निर्माण करते हैं। मुख्यतः खेती से प्राप्त खाद्यान्न, दलहन, तेलहन, ईख और फल-कन्द- ये ही सब उद्योगों द्वारा प्रसंस्कृत होते हैं। साथ ही अन्य वस्तुओं की रचना करते हैं। यह भी सही है कि वनों और उद्यानों से प्राप्त लकड़ियों से उपयोग की विभिन्न वस्तुएँ बनती हैं। कपास के कणों से कपड़े बुने जाते हैं। खेतों की मेड़ पर लगे पौधों से फूस की प्राप्ति होती है। और बाँस की खेती से या बाँसवाड़ी से बाँस को प्राप्त करते हैं। खेतों के आसपास की मिट्टी और उससे पकी हुई ईंटों से घर बनाते हैं। फूस, बाँस, मिट्टी, ईंट और लकड़ी- इन्हीं से हमारे छोटे-बड़े घर आकार लेते हैं। इन सबका सम्बन्ध प्रकृति और खेती से है।


हमारा जीवन निर्भर है- अन्न, पानी, कपड़े और घर पर ही। रोटी, कपड़ा और मकान' का राजनीतिक घोष तो पूर्णतः खेती और प्रकृति पर ही अवलम्बित है।।


कृष् का अर्थ हल चलाना है। अतः कृषि का अर्थ खेती है। अतः कृषक का अर्थ किसान हो जाता है। मनु के अनुसार ‘कृषि बलः' का तात्पर्य है कि खेती से अपनी जीविका चलानेवाला। और कृष्ण का अर्थ हुआ- श्यामवर्ण। साथ ही विष्णु के अवतार, वसुदेव एवं देवकी के पुत्र हैं। व्यवहारतः वे नन्द-यशोदा के पुत्र हैं। कृष्ण के अग्रज बलदेव तो हलधर हैं। इससे स्पष्ट है। कि कृष्ण और बलदेव का सम्बन्ध खेती से था। और श्रीकृष्ण ने नन्द एवं यशोदा से पालित होकर कृषकों और गोपालकों से अपने को सम्बद्ध कर लिया। कृष्ण का गोपों तथा गोपियों के साथ ही बाललीला एवं किशोरलीला संपन्न होती है। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कृषि का सम्बन्ध गो-वृषभों से अनिवार्य रूप से है। खेती तो गोवंश के बैलों के सहयोग से होता है। खेती की कुछ आवश्यक प्रक्रिया गाय-बैलों से ही हो पाती है। खेती के लिए हल चलाना, सिंचाई, ढोना, दवनी, आदि कार्य किसान बैलों के सहयोग से कर पाता है। गो-वृषभों के गोमय (गोबर) से उत्तम खाद की रचना हो पाती है। खाद के लिए भी किसान गोवंश पर ही निर्भर है। आज यन्त्रों का प्रयोग चल रहा है। बैल और किसान का सम्बन्ध अनिवार्य नहीं रह गया है। पर सीमांत किसानों को तो बैलों की आवश्कता है ही। बड़े किसानों को भी ज़रूरत पड़ जाती है। मशीनों पर निर्भरता से किसान को उत्तम खाद के लिए गोवशंजों के गोमय (गोबर) के लिए बेचैनी हो गयी है। रासायनिक खाद आरंभ में उपज बढ़ा देनी है, पर जमीन-खेत की उर्वरता कम हो जाती है। अन्नोत्पादन या फलोत्पादन या शाक- सब्जी की उपज की गुणवत्ता नष्ट होने लगती है। मानव रोगों का आखेट बनने लगता है। भारत में इसकी चर्चा होने लगी है। गोबर से निर्मित खाद की चर्चा प्रबल हो रही है। यह गंभीरता से विचारणीय है।


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