वेदों में कृषि विज्ञान

विश्व की प्राचीनतम सभ्यता सिंधु-घाटी के साक्ष्यों में कालीबंगा आदि में जुते हुए खेतों का मिलना तय करता है कि 5,000 वर्ष पूर्व भी भारत कृषि के तकनीकी ज्ञान से पूर्ण परिचित था। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में भी कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है।


मानव-सभ्यता के इतिहास में कृषि का आविर्भाव एक निर्णायक मोड़ कहा जा सकता है। हल की नोंक से खिंची रेखा मानव- इतिहास में जंगलीपन और सभ्यता के बीच की विभाजक रेखा है। यह कृषि ही है जिसने आखेटक, पशुचारी, घुमक्कड़ मानव को स्थायी निवास कर सामाजिक संगठन हेतु न केवल प्रेरित किया वरन् विकास गाथा के एक उज्ज्वल पृष्ठ पर स्वर्णिम आभा बिखेरती श्रेष्ठ आजीविका का एक पृष्ठ भी जोड़ दिया। अग्नि, पहिया और कृषि- ये तीन मानव-विकास की गाथा के आधारभूत स्तम्भ कहे जा सकते हैं। ए कौंसिस हिस्ट्री ऑफ सायंस इन इण्डिया के अनुसार भारत में जब मानव, सभ्यता की ओर बढ़ा, तभी से कृषि का प्रारम्भ हुआ और शनैः-शनैः भारत में कृषि विज्ञान की एक शाखा के रूप में विकसित होती चली गई।



सभ्यता का विकास नदी-घाटियों में होने का कारण भी यही रहा कि केवल पेयजल और जीवनयापन ही नहीं, अपितु स्थायी आजीविका के माध्यम कृषि हेतु सुगमता से यहाँ जल उपलब्ध रहता था। विश्व की प्राचीनतम सभ्यता सिंधु-घाटी के साक्ष्यों में कालीबंगा आदि में जूते हुए खेतों का मिलना तय करता है कि 5,000 वर्ष पूर्व भी भारत कृषि के तकनीकी ज्ञान से पूर्ण परिचित था। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में भी कृषि का गौरवपूर्ण उल्लेख मिलता है।


वेदों में वर्णित कृषि का अध्ययन करने से ज्ञात होता है। कि प्राचीन भारत में कृषि अत्यन्त उन्नत अवस्था में थी। ऋग्वेद की एक ऋचा (10.34.13) में कहा गया- अक्षैर्मा दीव्यः कृषिमित्कृषस्व वित्ते रमस्व बहुमन्यमानः। अर्थात् जुआ मत खेलो, कृषि करो और सम्मान के साथ धन कमाओ। कृषि सम्पत्ति और मेधा प्रदान करती है और मानवजीवन का आधार है। वेदों में वर्णित कृषि से तात्पर्य मनुष्यों के आधारभूत पदार्थों, यथा- फल, वनस्पतियों एवं अन्न आदि के श्रेष्ठ व गुणवत्तायुक्त प्रचुर मात्रा में उत्पादन करने से बताया गया है। भारत के वैदिक आर्य पौधे उगाने, फसलें उगाने के तकनीकी ज्ञान से इतने परिपूर्ण थे कि विविध धानों और हल से जुताई, बुवाई आदि तकनीकों का सुगढ़ता से उपयोग करते थे। ऋग्वेद में क्षेत्रपति, सीता और शुनासीर को लक्ष्य कर रची गई ऋचा (4.57.1-8) से वैदिक आर्यों के कृषि ज्ञान का बोध होता है।


शुनं वाहाः शुनं नरः शुनं कृषतु लाङ्गलम्। शर्नु वरत्रा बध्यतां शुनं अष्ट्रां उदिङ्गय॥ शुनासीर विमां वाचं जुषेथां यद्दिवि चक्रथुः पयः। तेनेमां उप सिञ्चतम्।। अर्वाची सुभगे भव सीते वन्दामहे त्वा।। यथा नः सुभगाससि यथा नः सुफलाससि॥ इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषानु यछतु। सा नः पयस्वती दुहां उत्तराम् उत्तरां समाम्॥ शुनं नः फाला वि कृषन्तु भूमिं शुनं नः कीनाशा अभि यन्तु वाहैः॥ शुनः पर्जन्यो मधुना पयोभिः शुनासीरा शुनं अस्मासु धत्तम्॥


इस प्रकार ऋग्वेद में कृषि-योग्य भूमि को ‘उर्वरा' अथवा ‘क्षेत्र' कहा गया है और हल के फाल से जुती हुई भूमि को 'सीता' कहकर संस्तुती की गई है। ‘इन्द्र' व 'पर्जन्य' अंतरिक्ष के देवता थे जिनसे कृषि व सिंचाई हेतु जल की अपेक्षार्थ प्रार्थना कर अच्छी कृषि हेतु सिंचाई की महत्ता भी दर्शाया गई है। ऋचा 1.117.21 प्रयोग होता था। ऋग्वेद में उल्लिखित सिंचाई के विविध साधनों में ‘कूप’ और ‘अवट' अर्थात् खोदकर बनाए गए गड्ढे, ‘कुल्या' अर्थात् नहरें, ‘अश्मचक्र' अर्थात रहट की चर्खा प्रमुख है। अश्मचक्र की सहायता से कूप से जल निकाल नालियों द्वारा खेतों तक पहुँचाया जाता था। ऋग्वैदिक ऋचाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि आर्य लोग खाद के प्रयोग से भी परिचित थे। ऋग्वैदिक आर्यों द्वारा कृषि-कर्म को उत्तम रीति से सुसंस्कारपूर्वक करना यह प्रमाणित करता है कि वे सुविकसित कृषि-कर्म में सुविज्ञ थे।


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