युगयुगीन जलपात्र

जल संचियौ भलौ- कहावत सिद्ध करती है कि पानी को जमा करना ही उचित है। अन्यथा वह बह जाता है। पानी को स्रोत के रूप में नदियों पर बाँध बनाकर, गाँव के नालों पर खुड्डी या तालाब बनाकर सञ्चित किया जाता है, किंतु घरों में जल-संचय के लिए पात्रों का प्रयोग किया जाता है। जल के इन पात्रों का अपना महत्त्व रहा है। मिट्टी से लेकर धातु तक से जलपात्रों का निर्माण किया जाता था। संभवतः मानव के हाथों बननेवाला पहला पात्र जल का ही होगा, आज भी सभ्यताओं के उत्खनन-स्थलों से मिलनेवाले बर्तनों और मृद्भाण्डों के आधार पर ही किसी संस्कृति और उसके सम्पर्को की पहचान की जाती है और कालक्रम का निर्धारण होता है। एक नगर के उत्खनन से और उसके निकटवर्ती स्थल की खुदाई या सर्वेक्षण से समान मुद्धाण्ड मिलते हैं तो नगरों और गाँवों के बीच संबंधों की स्थापना को तलाशा जा सकता है।



वेदों, ब्राह्मणों और स्मृतियों में जल संचय-योग्य विभिन्न पात्रों के नाम मिलते हैं। कुंभ, कलश, भांड आदि बहुत प्राचीन काल से ही बनते आए हैं। इनका आकार छोटा और बड़ा होता था और आकार, स्वरूप विन्यास के आधार पर ही इनकी पहचान की जाती थी। कुंभकारों ने इनको तैयार किया। मिट्टी को इसके योग्य तैयार करके चाक के उपयोग के द्वारा यथेष्ट आकार दिया जाता और फिर रेंगकर, धूप में सुखाया जाता। तदुपरांत आग में तपाकर पकाया जाता था।


उत्खनन में मिले जलपात्र


खुदाइयों में प्राचीन मृद्भाण्ड, धूसर मृद्भाण्ड और चित्रित धूसर मृद्भाण्ड प्राप्त होते रहे हैं जो हड़प्पा और उत्तर-हड़प्पा काल के परिचायक हैं। इनका प्रतिनिधित्व उत्तरवैदिक साहित्य करता है। इनका मुख्य केंद्र उत्तरी गंगा और सतलज का तटीय क्षेत्र रहा है। इनमें काले व लाल मृद्भाण्ड, काले स्लिपयुक्त मृद्भाण्ड, लाल मृद्भाण्ड और अनलंकृत मृद्भाण्ड भी मिले हैं। ये जल के अतिरिक्त अन्य घरेलू कार्यों के लिए प्रयुक्त होते रहे होंगे; क्योंकि ठीकरों में कटोरे और थालियाँ भी हैं क्योंकि वैदिक साहित्य में अम्बरीष, उख, कंद, स्थाली तथा भ्राष्ट्र-जैसे शब्द पात्रों के लिए मिलते हैं, जो कड़ाहियों के अर्थ में आते हैं। इनको पकाने के लिए आँवा तैयार किया जाता था जिसको वैदिक भाषा में ‘आपाक' कहा गया है।


पानी इकट्ठा करने के लिए ‘कुंभ' का प्रयोग होता था जबकि अनाज जमा करने के लिए कोश' का प्रयोग किया जाता था जो चित्रित धूसर मृद्भाण्डों से अलग हो सकता था। कटोरे के लिए कुंड' शब्द भी प्रयोग में आता था; क्योंकि ‘कुंडपायिन्’शब्द कटोरे से पीनेवाले के सन्दर्भ में आया है। कपाल भी कटोरे के लिए ही काम में आता था। इन पर आनुष्ठानिक अलंकरण भी मिले हैं। जिनमें अंजी, स्वस्तिक, त्रिपुर आदि मुख्य हैं। पुराकालीन बर्तनों पर उलटे और सीधे चन्द्रमा की आकृतियों को बिच्छू के रूप में पहचाना गया है। पानी को नापने के लिए मौर्यकाल से ही 'द्रोण' नामक पात्र का प्रयोग किया जाता था जो पूर्व-मध्यकाल तक प्रयोग में आता रहा। इसी पात्र से बरसात के मौसम में कितनी बारिश हुई है, इसका पता लगाकर कहाँ सूखा है और कहाँ पर्याप्त या अतिवृष्टि हुई है, इसका अनुमान किया जाता था।


घरों की खास आवश्यकता


हर घर में जलपात्र होना घर की पहचान का सूचक भी था। जहाँ इनको रखा जाता, वह स्थान पानेरा या पंडेरा कहा जाता था। तिपाहियों, त्रिपदियों अथवा घड़ौंचियों पर मटकों को रखा जाता था। हमारे यहाँ हर घर के बाहर जलपात्र रखे जाते थे। मिलेंडर को भारतीय घरों की इस परंपरा पर आश्चर्य हुआ था और बौद्ध-धर्म में दीक्षा के बाद उसने नागसेन से इसका कारण पूछा था। ये प्यास बुझाने ही नहीं, आग लगने पर बचाव के लिए भी उपयोगी होते थे।


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