आपोऽअस्मान्मातरः

पञ्चभूत के आविर्भाव से लेकर जीवन के अनागत अन्तिम विराम तक सम्पूर्ण सृष्टि जल-तत्त्व से परिपूर्ण है। सृष्टि-निर्माण के क्रम में भी जलतत्त्व की प्रधानता रही है। श्रीरामचरित्रमानस में लिखा गया, क्षिति जल पावक गगन समीरा अर्थात् मनुष्य ही नहीं, सम्पूर्ण चराचर जगत् की, पञ्चतत्त्वों में एक जल के बगैर कल्पना भी नहीं की जा सकती। पृथिवी पर एक तिहाई (70 प्रतिशत) जल है। मानव शरीर के निर्माण का हेतु जल, जीवन का आधार है। यही वजह है कि भारतीय आर्ष-ग्रंथों में जल को देवता मानकर संस्तुति की गई है। वैदिक वाङ्मय में जल की महत्ता को न केवल स्वीकार किया गया है अपितु जल की गरिमा-महिमा का बखान व जल-संरक्षण का सन्देश भी दिया गया है।



भारतीय परम्परा वेदों को नित्य एवं अपौरुषेय मानती है, परन्तु भारतीय संस्कृति मूलतः आर्य-संस्कृति है, अतः वेदों की सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक महत्ता बहुत अधिक है। श्रुति-परम्परा के द्योतक वेद जीवनोपयोगी तत्त्वों का संधान भी करते हैं। जीवन के पञ्चतत्वों में प्रमुख एक जलतत्त्व की महत्ता से हमारी भारतीय मनीषा पूर्ण परिचित थी, अतः वेदों में जल से संबंधित विशद वर्णन आता है जिसे ‘आपोदेवता-सूक्त' के नाम से जाना जाता है। आर्य जन ने जिस भी तत्त्व की महत्ता को गहराई से अनुभूत किया, उसे देव तत्त्व से अभिषिक्त कर दिया ताकि जनमानस में सहजता से उतर सके और उसके सम्यक् उपयोग की जागरुकता स्वयमेव ही मनुष्य में आ जाये। यही कारण है कि वेदों में जलसंबंधी जितने भी मंत्र हैं, वे 'आपोदेवता सूक्त' में दैविक प्रयोजन के विनियोग से निबद्ध हैं। मुनि यास्क ने ठीक ही लिखा है। कि जिस वस्तु की कामना करता हुआ ऋषि जिस अभीष्ट के प्राप्त्यर्थ जिस देवता की स्तुति करता है, उस मन्त्र को उसी देवता का मन्त्र समझना चाहिए।


वेदों की भाषा पुरातन वैदिक संस्कृत हैजिसमें जल हेतु जो शब्द प्रयुक्त हुआ है, वह ‘आप’ है जो कालान्तर में बहुवचन रूप में ‘आपस’ हो गया। इसी शब्द का अवस्ताईभाषा में सजातीय रूप ‘आपो' और फ़ारसी में ‘आब' है। ऋग्वेद में 'जलदेवता’ को ‘आपो देवता' या ‘आप देवता' कहा गया है और पूरे चार सूक्त आपो देवता के लिए समर्पित हैं।


ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के तेइसवें सूक्त के मंत्रद्रष्ट ऋषि मेधातिथि काण्व हैं। इस सूक्त के मंत्र 16-18 गायत्री छंद में, 19वाँ पुर उष्णिक छंद और 21वाँ प्रतिष्ठा छंद में है; परन्तु मंत्र 20, 22 व 23 अनुष्टुप छन्द में निबद्ध हैं। इस आपो देवता सूक्त के मन्त्रों में विविध प्रयोजनार्थ उपयोगी जल के स्तुतिगान व अभ्यर्थना की गई है जिससे जल की विशद महत्ता स्वयमेव प्रकट होती है। ऋग्वेद का ही एक अन्य सूक्त 47 भी त्रिष्ट्रप छन्द में मंत्रद्रष्टा ऋषि वसिष्ठ मैत्रावरुणि द्वारा सिद्ध किया गया है और आपो देवता को ही समर्पित है। ऋग्वेद के सातवें मण्डल के सूक्त 49 के मन्त्र त्रिष्ट्रप छन्द में वसिष्ठ मैत्रावरुणि द्वारा देखे गए हैं और आपो देवता को ही समर्पित हैं। ऋग्वेद के सातवें मण्डल के सूक्त 49 के मन्त्र, वसिष्ठ मैत्रावरुणि द्वारा देखे गए हैं और आप-देवता से प्रार्थना करते हुए इसमें जलदेवियों का वर्णन किया गया है। ये जलदेवियाँ, वे जलमातृकाएँ हैं जो मत्सी, कुर्मी, वाराही, दुर्दुरी, मकरी, जलूका व जन्तुका नाम से जानी जाती हैं। मन्त्र 7.49.4 में कहा गया है- यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वे देवा यासू मदन्ति वैश्वानरो यास्वाग्निः प्रविष्टस्ता आपो दवीरिह मामवन्तु॥ अर्थात् राजा वरुण और सोम जिस जल में निवास करते हैं, जिसमें विद्यमान सभी देवगण अन्न से आनन्दित होते हैं, विश्व-व्यवस्थापक अग्निदेव जिसमें निवास करते हैं, वे दिव्य जलदेव हमारी रक्षा करें। इसके पूर्व के मन्त्र में उपर्युक्त वर्णित जलदेवियों को रसयुक्ता, दीप्तिमती एवं शोधिका बताया गया है और वरुणदेव को उनका स्वामी।


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