भारतीय में मूर्ति-पूजा की प्राचीनता

ठक सह रतीय शिल्प और कला-शैली की रूपरेखा वैदिक साहित्य के अध्ययन से विदित हो जाती है। ऋग्वेद अग्नि के सहस्र आँख और पुरुष (विश्वरूप) के सहस्र सिर तथा पाद की कल्पना की गई है- सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपाद


चौथे मण्डल में ही प्रतिमा का उल्लेख है। मन्त्र में इन्द्र-प्रतिमा क्रय का प्रश्न उठाया गया है


क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः-


ऋग्वेद, 4.24.10


-ऋग्वेद, 4.24.10 पाश्चात्य विद्वानों ने इसे प्रकृति का अनुकरणमात्र ही समझा, किन्तु भारतीय कलाकार ने धार्मिक एवं दार्शनिक कल्पनाओं पर आधारित कल्पित रूपों की सृष्टि की। उसी में विष्णु तथा शिव के विभिन्न आकार भी सम्मिलित हैं तथा देवमन्दिर का शिखर अनन्त की ओर संकेत करते दिखलाया गया। ब्राह्मण-साहित्य और श्रौतसूत्रों के अनुसार देवी-देवता, मानव पशु-पक्षी की मूर्तियाँ बनाई गयीं तेषाम्पुरुषरूपकमिव कृता (ऐतरेयब्राह्मण, 7.2.2)।



मूर्ति-विवेचन के सम्बन्ध में दो दृष्टिकोण सम्मुख आते हैं। प्रथम मूर्ति निर्माण तथा द्वितीय मूर्तिपूजा। दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है, किन्तु मूर्ति-पूजा के पश्चात् प्रतिमा निर्माण की कल्पना समाज में आयी।


आयी। ऋग्वेद के रुद्र तथा अग्नि का सम्बन्ध कालान्तर में पूजित देवता के स्वरूप में देखते हैं। उसी को विष्णु या वासुदेव नारायण के रूप में भी व्यक्त किया गया। वैदिक मंत्र की व्याख्या करते समय सायण ने प्रतिमा-निर्माण की कल्पना नहीं की है। हॉपकिन्स आदि संदेह व्यक्त करते हैं कि क्या वैदिक संस्कृति में देवताओं की मूर्ति बनाई गई थी या नहीं? वेंकटेश्वर तथा मैक्डॉनल के वाद-विवाद का कोई फल नहीं निकला। वर्तमान परिस्थिति में प्राचीन युग में देवप्रतिमा के निर्माण का प्रश्न जटिल समझा जाता । समुचित उत्तर के लिए यथार्थ प्रमाण नहीं मिलते। उत्तरवैदिक साहित्य में देव-प्रतिमा के शक्तिशाली होने का विवरण उपलब्ध हुआ है। श्रीरंचित कृणुत सुप्रतिकम् (ऋग्वेद, मण्डल ) का भावार्थ यह है कि कुरूप को सुन्दर मूर्ति बनाओ। हम देवता का पूजन इसलिए करते हैंकि उसे (ब्रह्म) प्राप्त करें। इस प्रकार के वैदिक साहित्य का उल्लेख तथा वपु, तनु, रूप शब्दों से वैदिक देवता की कल्पना सरलतापूर्वक की जा सकती है। वेदमंत्रों द्वारा प्राचीन काल में मूर्तिपूजा के लिए प्रबल प्रमाण भी उपस्थित किए जाते हैं। परन्तु प्रतिमा-निर्माण के साक्ष्य नहीं हैंमैक्समूलर)। कीथ के मतानुसार वैदिक देवता के मनुष्याकार प्रतिमा की स्थिति को भुलाया नहीं जा सकता। इसका एकमात्र कारण यह था कि मानव विश्व में अपने आत्मान् से पृथक हो गया था और पूजन के द्वारा वह ब्रह्म (परमात्मा) से मिलने की इच्छा रखता था।


अतएव विश्व-इतिहास में जितनी प्राचीनतम संस्कृतियों का वर्णन मिलता है, उन सभी स्थलों में प्रतिमा-पूजन का प्रचार रहा। मिस्र, बेबिलोनिया, असीरिया, यूनान, आदि देशों की तरह भारत में भी ईसा पूर्व हजारों वर्ष पहले प्रतिमा-पूजन का प्रसार हो चुका था। हेस्टिंग ने इस विषय पर पर्याप्त प्रकाश डाला है (इन्साइक्लोपीडिया ऑफ रेलिजन एण्ड एथिक्स, भाग 7)। भारतीय इतिहास के अध्ययन से कुछ लोगों को भ्रामक धारणा हो जाती है कि ईसवी सनू के आरम्भ से महायान-मत के उदय के साथ प्रतिमा-पूजन का क्रम भारत में स्वीकृत हुआ। किन्तु वैदिक साहित्य तथा पाणिनि के सूत्रों से मूर्ति-पूजा की प्राचीनता के विषय में हमें जानकारी हो जाती है।


वैदिक साहित्य के देवालय तथा देव-प्रतिमा प्रतिकृति या बिम्ब शब्दों से मन्दिर तथा उसमें स्थापित मूर्तियों की कल्पना की जा सकती है। यह तो निर्विवाद है कि ईसा पूर्व पहली शती से भारत में प्रतिमाओं का निर्माण होने लगा था। इससे पूर्व यानी ईसा पूर्व दूसरी शती में पतञ्जलि ने पाणिनि-सूत्र की (जीविकार्थे चापण्ये 5.3.99) व्याख्या करते समय वासुदेव, शिव, स्कन्द, विष्णु, आदित्य के नामों का उल्लेख किया है जिसका भाव प्रतिमा (अर्चा) से है।


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