गाँधी का चंपारण-सत्याग्रह

चंपारण-सत्याग्रह के सौ साल पूरे हो चुके हैं। आज जब उसकी चर्चा चली है, तो बड़े-बुजुर्गों से जानी- सुनी अनेक पुरानी बातें याद आ जाती हैं। हमलोग चंपारण जिले के पुश्तैनी बाशिंदा हैं और मेरे परबाबा, बाबू गोपालजी सहाय, उन दिनों मोतिहारी में 'प्लैंटर्स एसोसिएशन के मुकामी मुख्तार थे। सत्याग्रह के दौरान नीलहा साहबों से नाता तोड़ वे गाँधीजी की सहायक-मण्डली के साथ हो लिये। बिहार का चंपारण जिला भौगोलिक दृष्टि से हिमालय की तराई का विस्तार है। उस जिले में गोरे नीलहा साहबों के सैकड़ों कोठियाँ थीं। वे लोग छोटे किसानों को पट्टे पर जमीन देते और प्रति बीघा तीन कट्टे में जबरन नील की खेती करवाते। खेती का सारा खर्च बेचारे जोतदारों के मत्थे चढ़ता। उस प्रथा को ‘तीन कठिया' कहा जाता था।



तीन कठिया का फंदा बड़ा दुःखदायी था। रैयतों को न केवल जमीन की मालगुजारी बल्कि अनाज के अलावा आम-कटहल जैसे फलों की फसल पर भी कर देना पड़ता। साहब को हाथी-घोड़ा खरीदना हो या मोटरगाड़ी, छुट्टी बिताने पहाड़ों पर जाना हो या समुद्र किनारे, सबके लिए रैयतों का अंशदान जरूरी था। खेतों में मजदूरों को या तो मुफ्त खटवाया जाता अथवा बनिहारी के नाम पर मात्र दस पैसे थमा दिए जाते। औरतों को छः पैसे और बच्चों को सिर्फ तीन पैसे। चूं-चपड़ की कोई गुंजाइश नहीं। गोरों का दबदबा इतना था कि इलाके के दबंग राजपूत- भूमिहार जागीरदारों तक की मजाल न थी कि नीलहों के खिलाफ जुबान खोलें। रैयतों की झोपड़ी जला देना, माल-मवेशी हाँक ले जाना, औरत-मर्दो की धुनाई- पिटाई, बेदखली आदि अत्याचार आए दिन होते ही रहते। नीलहा साहब लोग जिले के कलेक्टर, एसपी को इसलिए तनिक भी भाव न देते क्योंकि उनका सीधा सरोकार सूबे के लाट साहब (गवर्नर) से हुआ करता था। पुराने लोग बताते कि लाट साहब जब अपने दल-बल के साथ भैसालोटन के जंगलों में शिकार खेलने आते थे, तो उनके प्रवास-आखेट, आमोद-प्रमोद आदि का सारा आयोजन नीलहा साहबों के ओर से ही हुआ करता था।


न जाने राजकुमार शुक्ल को कैसे सूझी कि किसानों की दुर्दशा मिटाने गाँधीजी को वे चंपारण ले आये। उन दिनों भारत में गाँधी को कम ही लोग जानते थे। उनकी अपेक्षा पं. मदनमोहन मालवीय और श्रीमती एनी बेसेंट ज्यादा मशहूर थीं। मालवीयजी साल 1909 में काँग्रेसअध्यक्ष रह चुके थे तथा सत्याग्रह के समय (वर्ष 1917) एनी बेसेंट भी काँग्रेसअध्यक्षा चुनी गई थीं। स्वयं राजकुमार शुक्ल चंपारण के एक मामूली किसान थे। थे तो वे जाति के ब्राह्मण, किंतु बहुत कम पढ़े-लिखे। एक सीधा-सादा व्यक्ति, जिसके परिचय या प्रभाव का दायरा बहुत छोटा था। हाँ, वे लगनशील और परोपकारी अवश्य थे। उनके साथ गाँधीजी निकल तो पड़े, लेकिन पटना पहुँचते ही उन्हें लगा कि काम जितना कठिन है, उनमें शुकुल महाराज कारगर नहीं होंगे। उन्होंने कमान खुद सम्भालना तय किया। लन्दन में पढ़ाई के दिनों में मजहरूल हक साहब गाँधीजी के सहपाठी थे। अब वे पटना में बैरिस्टरी करते थे। खबर मिली तो गाँधीजी को वे अपने घर ले आये। उनकी बात सुनी और इस दिशा में बड़ी सावधानी बरतने की सलाह दी। बताया कि नीलहा साहबों के अलावा सरकार से भी टक्कर लेनी पड़ेगी। जेल जाने तक की नौबत आन पड़े। हक साहब ने गाँधीजी के मुजफ्फरपुर जाने का इंतजाम कर दिया। वह शहर तिरहुत कमिश्नरी का मुख्यालय है जिसके अंतर्गत उत्तर बिहार के चार जिले थे- सारण, चंपारण, दरभंगा और मुजफ्फरपुर।


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