जल ही जीवन है।

हमारा देश पानी की विकट समस्या का सामना कर रहा है। जगह-जगह । पानी की कमी से गम्भीर समस्याएँ खड़ी हो गई हैं और दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। कहीं-कहीं पेयजल के लिए भी पानी उपलब्ध हो पाना मुश्किल हो रहा है। देश की 85 प्रतिशत पानी की जरूरत पूरी करनेवाला भूजल-स्तर अत्यंत न्यून हो गया है। हमारी जिंदगी पानी के बिना नहीं चल सकती। पानी की कमी के कारण कई तरह के विवाद और संकट पैदा हो गए हैं। हर तरफ पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची है। जानवरों के लिए चारे-पानी की समस्या हो गई है, किसान निराश हो रहे हैं। अपनी ही आँखों के सामने अपनी खेती, अपने मवेशी, अपनी गृहस्थी उजड़ता देख किसान आत्महत्या करने पर विवश हैं। सूखा, बाढ़ या किसी भी प्राकृतिक आपदा में गरीब ही सर्वाधिक प्रभावित होता है। अमीर एवं मध्यम वर्ग तो किसी-न-किसीतरह जीने के साधन जुटा लेता है, परन्तु गरीब दम तोड़ने के सिवा कुछ नहीं कर पाता।



देश में जलवायु-परिवर्तन के कारण कम बारिश होने से, सही ढंग से वर्षा- जल का संरक्षण न हो पाने से तथा रहन- सहन में आए बदलाव के कारण जलस्रोतों की उपेक्षा से स्थिति अक्सर भयावह हो जाती है। हर साल गरमियों में एक के बाद एक कई राज्यों में जलसंकट की स्थिति पैदा होती है, सब हाय-तौबा मचाते हैं, पर स्थिति जरा-सी सही होने पर पहले की ही तरह लापरवाह हो जाते हैं। देश की एक-चौथाई आबादी सूखे की चपेट में रहती है। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में खाद्यान्न और जलसंकट के प्रति राज्य सरकारें भी उदासीन हैं। किसानों की समस्याओं को हल करने तथा उन्हें खुशहाल बनाने के लिए योजनाएँ तो खूब बनाई जाती हैं, परन्तु समस्या यथावत् बनी रहती है। सारी योजनाएँ फाइलों में ही सिमटकर रह जाती है। जबकि सभी जानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि की बड़ी भागीदारी है, लेकिन अभी तक हमारे नीति-निर्माताओं के पास न तो कोई कारगर नीति है और न ही प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की कोई ठोस व्यवस्था। देश का बड़ा भूभाग सूखे की चपेट में होने के बावजूद राज्यों ने जल- संग्रहण, पशुओं के लिए चारा-भण्डारण, ३। । फसल नाकाम होने पर रोजगार मुहैया कराने जैसे ज़रूरी उपाय नहीं किये जो अति आवश्यक थे। ऐसी स्थिति में सूखे के संकट के बारे में सबको मिल-जुलकर सोचना होगा। अतिशीघ्र जलस्तर में सुधार का महत्त्वपूर्ण कार्य और अत्यधिक जल संग्रहण करना होगा। देश में उत्पन्न सूखे का निवारण जल के उचित प्रबंधन से ही हो सकता है। इसके लिए सरकार की सहभागिता के साथ जनसहभागिता भी ज़रूरी है।


देश के सभी विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में एक ऐसे पाठ्यक्रम की आवश्यकता है जिसमें बच्चों को जलसंरक्षण और जल के सदुपयोग की शिक्षा दी जाये। भौतिकता की चकाचौंध के चलते गाँव-देहात में भी लोगों ने पानी के परंपरागत कारगर तरीके अपनाने छोड़ दिए। हैं। घर के आँगन में पोखर-कुआँ बनवाने का सिलसिला लगभग बन्द ही हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में जल इकट्ठा करने के साधनों-तालाबों, टंकियों, झीलों व बावड़ियों को नगरों, कस्बों व खेती के विस्तार ने लील लिया है। सूखे से बचने के उपाय सभी को मिलकर सीखने चाहिए। चारा और मवेशी सूखे में ढाल का काम करते हैं, इन्हें बचाएँ तथा बढ़ाएँ। कई ऐसे झाड़-झंखार, पत्ती व घास, जिन्हें हम बेकार समझकर प्रायः नष्ट कर देते हैं, उन्हें सुखाकर चारे और ईंधन का रूप दिया जा सकता है। पीने के पानी और चारे के इंतजाम से मवेशियों का जीवन तो बचेगा ही, उनके दूध से हमारी पौष्टिकता की रक्षा होगी। सूखे के दौर में ज्यादा पानीवाली फसलों की जगह कम पानीवाली फसलों को प्राथमिकता दें। खेती के साथ बागवानी का भी प्रयोग हो। हमें यह समझना और समझाना होगा कि पानी की कमी होने पर बड़ी-से-बड़ी आर्थिक तरक्की टिक नहीं सकती। जब भूजल-स्तर गिरता है, तब जीवन-स्तर स्वतः ही गिर जाता है। अतः हमें इसके लिए समेकित प्रयास करने होंगे। पानी की एक-एक बूंद के महत्त्व को समझना तथा समझाना होगा। लोगों को बताना होगा कि हमारी परम्परागत छोटी-छोटी स्वावलम्बी जल-संरचनाएँ ही हमें सूखे में पानी का वह स्वावलंबन लौटा सकती हैं।