जल से जुड़े जंगल चिह्न

देव-प्रतिमाओं के लक्षणों में मांगलिक चिह्नों का अपना महत्त्व है और इनमें जल से जुड़े नदी आदि प्रतीकों, उत्पादों, पात्रों और जलीय जीवों का अपना विशिष्ट स्थान रहा है। पानी की तो आकृति नहीं हो सकती, किन्तु पानी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे में देवी-देवताओं की मूर्तियों के लक्षणों के निर्धारण में विभिन्न धार्मिक प्रतीकों के रूप में जीवनाधार जल की विविध रूपों में उपस्थिति को प्रकट करने का सुलाघव प्रयत्न बहुत पुरातन काल से होता आया है। भारत ही क्या, प्रतीकों की परम्परा विश्वभर के कला संसार में समानतः व्याप्त मिलती है।



भारतीय शिल्पशास्त्र की परम्परा सिद्ध करती है कि मंगल चिह्न देव-प्रतिमाओं, चित्रों अथवा अन्य रूपात्मक सर्जनाओं के भद्रकृत, स्वस्तिमय और कल्याणरूप को प्रदर्शित करते हैं। प्रतिमाशास्त्र में इन मंगल-प्रतीकों को परंपरानुगत रूप से स्वीकार किया है। स्वीकार करने के ऐसे प्रमाण हमें वैदिक काल से लेकर मध्यकाल तक मिलते हैं। ऋग्वेद के काल में सबसे बेहतर मंगल प्रतीक पूर्णघट या मंगलकलश माना जाता था। तब हर घर में पूर्णकलश को उठाए स्त्री के रूप की स्थापना की जाती थी। एक मंत्र में ऐसी अभीष्टदायिनी वधू को मंगलकारिणी कहा गया है। यह रूप पनिहारिन का था। यह आज तक मंगल प्रतीक बना हुआ है। न केवल देवमूर्तियों बल्कि गुदनों के रूप में नारियों ने भी अपनी भुजाओं पर पनिहारिनों का अंकन करवाया है। यह शकुन में भी स्वीकार्य है। मत्स्यपुराण के काल (सम्पादन समय 5वीं शती) तक जो अष्टमंगल प्रतीक माने गए थे, उनमें पाँच, जल से सम्बन्धित हैं :


स्वस्तिकं पद्मकं शंखमुत्पलं कमलं तथा।


श्रीवत्सं दर्पणं तद्वन्नन्द्यावर्तमथाष्टकम्॥


मत्स्यपुराण, 268.17


पुराणोक्त विभिन्न कर्मकाण्डों में जल का सर्वत्र सम्मान मिलता है और जलीय पात्रों, उत्पादों का भी यत्र-तत्र स्मरण किया गया है। जल का आनुष्ठानिक प्रयोग प्रायः देवस्य त्वा सवितुः (वाजयनेयीसंहिता, 1.19)-जैसे मन्त्र के पाठ के साथ करने का निर्देश मिलता है और तब प्रार्थना में और आचमन आदि में यह कहा जाता था, मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापापहं शुभम्, अर्थात् गंगाजैसे स्रोतों का जल सभी पापों का विनाशक और शुभप्रदायक होता है। (मत्स्यपुराण, 268.20)।


सभी धर्मों में आदर


जल से जुड़े मंगल प्रतीकों की सभी धर्मों, मतों में समान मान्यता मिलती है। किसी एक का उन पर स्वत्व नहीं है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का कहना है कि बौद्ध, जैन और ब्राह्मण- सभी धर्मों में मंगल प्रतीकों की मंगलमयी धारा समान रूप से प्रवमान है। इनमें पूर्णघट या जलपूरित कलश, जलाभिषिक्त श्रीलक्ष्मी और (धारामय जल विवर की रूपाकृति के रूप में स्वीकार्य) चक्र तो सर्वत्र परंपरित है। गौमती-जैसी चक्र-रचनाएँ भी जलजन्य ही हैं। बौद्ध और जैनस्तूपों के निर्माण-काल से ही अलंकरण के रूप में पूर्ण घटकलशश्रृंखला, पद्ममालाएँ, चक्र-श्रृंखलाएँ, शिशुमार, मकर आदि के अंकन और उत्कीर्णन की परम्परा देखने को मिलती है। यही नहीं, नगर की पञ्चरक्षा-पंक्तियों में भी इनकी गणना की गई है- जैसे उदकनिःसृत नाग, करोटपाणि देव, मालाधारी देव, सदामत्तक देव, चार महाराज देव, लोकपाल आदि। घरेलू वास्तुकला में भी शंख और पद्म प्रतीकों को अपनाया गया, जो द्वार के पार्श्व स्तम्भों पर उत्कीर्ण किए जाते थे।


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