जलस्रोतों की कला और वैशिष्ट्य

वष्टि, वायु और वन भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि से पर्यावरण के मूलाधार हैं। इनका परस्पर संबंध है। और ये अन्योन्याश्रित भी हैं। पानी से ही मानव की जिंदगानी है। कहने को तो पानी के सौ पर्यायवाची हैं, मगर उसका विकल्प एक भी नहीं है। इसलिए लोकाञ्चल में पानी को जीवन के लिए अति आवश्यक तत्त्व के रूप में स्वीकारा गया है। पानी के लिए नाना जतन पर जोर दिया गया है और यह जतन पानी को पाने से लेकर पानी को लाने और बचाने तक के लिए करने पर बल दिया जाता रहा है।


राजस्थान को तो जांगल प्रदेश कहा गया है, जहाँ पानी का सदा अभाव ही रहा है और ऐसे अभावों के बीच जीव ने अपने जीवन को बचाने के लिए बहुत प्रयास किया है। यहाँ वायु के चलने, वनस्पति के फलने और तारा-नक्षत्रों के चमकने के आधार पर वर्षा का ज्ञान किया जाता रहा है। यहीं के सारस्वत मुनि ने सर्वप्रथम भूमिगत जल ज्ञान के संबंध में कार्गलजैसा शास्त्र लिखा तो यहाँ विचरनेवाले भार्गवों ने उस ज्ञान का विकास किया और मनु के मत के रूप में लिखा। पराशर मुनि की विहारस्थली भी यही प्रदेश रही है। जिन्होंने कृषकों और बागवानों-मालियों के हित में वर्षा-विज्ञान को संस्कृत में लिखा जबकि घाघ या गर्ग ने सर्वप्रथम इस संबंध में लोकाञ्चल में कही जानेवाली उक्तियों को विभिन्न छंदों में लिखकर कंठकोश पर अमर कर दिया।



यहाँ जल-विषयक स्थापत्य की परंपरा अति ही विशिष्ट रही है। विशेषकर गुर्जरत्र प्रदेश होने के दौरान राजस्थान से लेकर गुजरात तक के विभिन्न मार्गों पर कूप, बावड़ियों और मन्दिरों के आगे व पार्श्व में कुंडों का निर्माण किया जाता था। विष्णुधर्मोत्तरपुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति तालाब, कूप-जैसे जलस्रोत बनवाता है, कन्यादान करता है, छत्र, पाँव में जूते आदि देता है, वह स्वर्ग को जाता है-


तडाग कूप कर्तारस्तथा कन्या प्रदायिनः।


छत्रोपानह दातारन्ते नराः स्वर्गगामिनः॥


जलस्रोतोंकीआवश्यकता और परम्परा


अपराजितपृच्छा, जिसकी रचना चित्तौड़गढ़ में राजस्थान और गुजरात की पृष्ठभूमि और वहाँ की आवश्यकता को लेकर की गई है, में विश्वकर्मा के मुँह से कहलाया गया है कि प्रत्येक नगर के बाहर और अन्दर की ओर भी विविध प्रकार के जलाशयों की व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि जल ही जीवन है। ऐसे में वहाँ वापी, कूप, तड़ाग, कुण्ड आदि विविध प्रकार के जलस्रोत बनाएँ। इसी प्रकार आदित्यपुराण में आया है कि सेतुबंध जैसे व्यक्ति को पार ले जाते हैं और तीर्थ विविध चिन्ताओं से मुक्त करते हैं, वैसे ही तालाब बनवानेवाला प्राणियों को प्यास के भय से मुक्ति देता है।


सेतुबन्धरता ये च तीर्थशौचरताश्च ये।


तडागकूपकर्तारो मुच्यन्ते ते तृषाभयात्॥


कूपों के कौतुकीकृत्यः -


भावप्रकाश-जैसे आयुर्वेद-ग्रंथ में कहा कि अल्प विस्तार से जहाँ मण्डलाकृति में भूमि को खोदा जाता है और जिस गर्त में पानी मिलता है, वह चाहे बँधा हुआ हो या निर्बन्ध हो, कूप कहा जाता है।


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