जलोत्थान का प्राचीन या रहट'

हमारे यहाँ जलोत्थान या वाटरलिफ्टिंग के लिए रहट का प्रयोग प्राचीन काल से ही होता आया है। आज हालांकि रहट के नामलेवा तक कम ही बचे हैं, लेकिन कल तक रहट-निर्माण की कला यहाँ के जनजीवन का अभिन्न अंग रही है। रहट होना समृद्धि का सूचक था, कृषि-समृद्धि के साथ ही प्रतिष्ठा का भी। खेतों को भी रहट के नाम पर जाना जाता था। कई रहट तो बड़े प्रसिद्ध रहे। कुण्ड, कूप, नहरों और बावड़ियों से ही नहीं, झीलों से भी रहटों द्वारा जलोत्थान किया जाता था।


रहट को संस्कृत में ‘अरहट', ‘घटीयंत्र', 'अरघट्ट और अन्यत्र ‘फ़ारसीयंत्र' अथवा ‘फ़ारसीचक्र' की संज्ञा दी गई है। यूं इतिहासकारों में रहट के उद्भव को लेकर लम्बे समय से विवाद रहा है, नाम व अन्य कारणों से इसे फ़ारस से आया हुआ मानते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. दशरथ शर्मा ने स्पष्ट किया था कि इस फारसी चक्र में कुछ भी फ़ारसी नहीं है। ईसा से बहुत पहले ही भारतीय किसानों को इसकी जानकारी थी। हमारे यहाँ रहट के दो प्रकार थे- नोरिया, जिसमें चक्र पर। घटिकाएँ लगी होती थीं तथा साकि जो फ़ारसीचक्र था। मुगल-आक्रांता बाबर (1526-1530) ने राजस्थान और सिंध के सीमावर्ती लाहौर, दीपलपुर में दाँतदार चकरियों पर घटों द्वारा जलोत्थान के जिस यंत्र का वर्णन तुजुके बाबरी (द्वितीय खण्ड, पृ. 486-87) में किया है, वह रहट ही था|



हमारे यहाँ उपनिषदों में रहट का वर्णन मिलता है। 906 ई. के आसपास हुए सिद्धर्षि ने ‘उपमितिभावप्रपञ्चकथा' में रहट का वर्णन किया है तथा दसवीं शती में ही जालोर में लिखित ‘कुवलयमाला' में रहट का उल्लेख मिलता है, वहाँ जन्मचक्र को रहट के उपमान के साथ समझाया गया है। आद्य शंकराचार्य ने छान्दोग्योपनिषद् के भाष्य व अज्ञानबोधिनी ग्रंथ में घटीयंत्रकूपे लिखकर इस यंत्र के आठवीं शती में प्रचारित होने का संकेत दिया है। प्रबंधचिन्तामणि में अरघट्टघटीयंत्र' नाम से उल्लेख मिलता है। रहट का प्राचीनतम विवरण विनयपिटक पर समंतपादिका टीका में उपलब्ध होता है, जबकि चुल्लवग्ग में ‘तुलम्', 'करकटकम्', 'चक्कवट्टकम्' नाम से सिंचाई-यंत्रों का संकेत मिलता है। द्वितीय शती में हुए विष्णु शर्मा ने पञ्चतंत्र तथा इसके प्राचीन पाठ तंत्राख्यायिका में भी रहट का वर्णन एक मेंढक व साँप के आख्यान के साथ हुआ है।


बारहवीं शती में पूर्णभद्र द्वारा लिखित पञ्चाख्यानक में भी रहट का जिक्र है, यह ग्रंथ मेवाड़ में लोकप्रिय था और महाराणा उदयसिंह के शासनकाल में चित्तौड़ में इसकी प्रतिलिपि तैयार हुई थी। इसी प्रकार हर्षचरित, कादंबरी में क्रमशः ‘उद्घाटघटी', ‘चूनम' नाम से रहट का उपयोग हुआ है, ये मालवा-मेवाड़ में लोकप्रिय थे। इसी प्रकार विक्रमांकदेवचरित में ‘घटियंत्रगुणोपम' कहकर इसे उपमेय रूप में दर्शाया गया है। हलायुध के अभिधानरत्नमाला में नहरों के पानी का उत्थान करनेवाले एक साधन के रूप में रहट का जिक्र किया गया है जिस पर शब्दकोशकार मोनियर मोनियर विलियम ने अपना विश्लेषण प्रस्तुत किया है।


मेवाड़ की सीमा पर मंदसौर में यशोधर्मन के 510 ई. के अभिलेख में वहाँ खुदवाए गए कूप पर निरंतर जलोत्थान के लिए प्रयुक्त यंत्र के रूप में मालाकार जलयंत्र का प्राचीनतम उल्लेख मिलता है जबकि रहट के साथ खेतों के दान का प्रथमतः उल्लेख वीरपुरा के 1185 ई. के ताम्रपत्र में है, जिसमें गुजरात के भीमसिंह के सामंत अमृतपाल द्वारा लसाड़िया गाँव में अरहट के साथ भूमिदान का अहद है। इस काल में रहट को ‘अरघट्ट' कहा जाता था। इसी काल में गुजरात में भुवनदेव ने अपराजितपृच्छा में उद्यान-निर्माण के साथ इस यंत्र के उपयोग का सुझाव दिया था। आहाड़ में 1206 ई. में रहट का उपयोग होने लगा था जैसा कि भोला भीमदेव के ताम्रपत्र में उल्लेख है। कमाल के 1259 ई. के ताम्रपत्र में भी वहाँ पर भी रहट के संचालन का जिक्र मिलता है।


मेवाड़ में रहट के दो रूप मिलते हैं- बैल से संचालित रहट तथा पाँव से संचालित रहट या पाँवटी। इनका उपयोग पहाड़ी क्षेत्रों में सिंचाई के लिए सालों से होता आया है। यदि जन-मान्यताओं पर विश्वास करें, तो पाँवटी इस क्षेत्र की देन मानी जा सकती है। हालांकि संस्कृत-ग्रंथों में ‘पादावर्त' नाम से पाँव से संचालित रहटों का उल्लेख मिलता है, किंतु पादावर्त को पाँव के साथ-साथ हाथ से भी संचालित किए जाने का विवरण मिलता है।


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