कला का मूर्त रूप

उदयाचल से उठकर सूर्य जब अपना दूसरा पैर उठाता है, तब उसका पूरा तेज आकाश को छा लेता है। कला का वैभव भी उसके दूसरे चरण अर्थात् भावों को मूर्त रूप देने में ही है। शिल्पी पहले अनगढ़ शिलाखण्डों की धैर्य के साथ आराधना करता है, उसकी उस निष्ठा से वे पाषाण मानो द्रवित होकर श्री और सौन्दर्य के रूप में परिणत हो जाते हैं। उनमें कलाकार की भावना प्राण का संचार कर देती है। शिल्प के वे प्रतीक रसिकों और कलाविदों के लिये रस के अनुपम स्रोत बन जाते हैं। जो रसज्ञ हैं, सहृदय हैं, उनके हृदय में ही कला रस-संचार का द्वार खोलती है और वे ही कला की वाणी का मर्म प्राप्त करते हैं। कला के आचार्य उसके बाह्य रूप को समझ सकते हैं, पर रसज्ञ के लिये कला अपना अंतरंग रूप प्रकट कर देती है।



भारतीय कला ने अपने अर्थों को व्यक्त करने के लिये अनेक मनोहर सूत्रों का निर्माण किया। त्रिमूर्ति के पीछे दार्शनिक चिन्तन का कितना रहस्यमय संकेत है? प्रणव से लेकर त्रैगुण्य तक के विराट् भावों की अभिव्यक्ति के लिये कला ने ‘त्रिमूर्ति'- यह छोटा सा इंगित बनाया और वह सबके लिये संतोषप्रद हुआ। त्रिमूर्ति की प्रतिमा मानो भारतीय दर्शन की प्रतिमा है। तत्त्वज्ञान के आँगन में खड़े होकर जब हम एकैव मूर्तिर्विभिदे त्रिधा सा का उच्चारण करते हैं, तब कला में विरचित त्रिमूर्ति की प्रतिमा उस अनुभव को प्रत्यक्ष दिखाकर हमें अपूर्व संतोष प्रदान करती है।


धारापुरी के कैलास मन्दिर में स्थापित त्रिमूर्ति की प्रतिमा भारतीय दर्शन की अमर प्रतिमा की भाँति हमारे सामुद्रिक देहलीद्वार पर प्रतिष्ठित है। दर्शन ही हमारे राष्ट्र की आत्मा है। अतएव इस भव्य त्रिमूर्ति के रूप में मानो राष्ट्र की अधिष्ठात्री देवी स्वयं मूर्तिमती होकर रत्नाकर के प्रवेशद्वार पर सबका स्वागत करती है।


इसी प्रकार शिव का ताण्डव भी कला का मँजा हुआ सूत्र है। दुर्धर्ष सृजन-शक्ति के स्पन्दन को एक केन्द्र पर लाकर उसकी कल्याणमयी कल्पना शिव का ताण्डव नृत्य है। जिस कलाकार ने सबसे पहले इस गम्भीर दार्शनिक भाव को कला की लिपि में व्यक्त किया, उसकी ध्यान-शक्ति धन्य है।


शेषशायी विष्णु भारतीय कला की तीसरी अर्थपूर्ण परिभाषा है। सहस्रशीर्षा पुरुष अनन्त है, उसके एक अंश से यह जगत् स्थित कहा जाता है। विष्णु उसका वह रूप है जो इस विश्व में व्याप्त हो गया है। इससे बचा हुआ जो शतकोटि अनन्त ब्रह्म है, वही सहस्रशीर्षा पुरुष है, उसका ही नाम शेष है; क्योंकि विश्व के बाद जो शेष रहता है, वह वही है। विश्व में व्याप्त विष्णु सदा उस अनन्त शेष के आधार से स्थित रहता है, इस दार्शनिक सम्बन्ध को व्यक्त करने के लिये कलाकारों ने शेषशायी विष्णु की प्रतिमा का निर्माण किया। विश्व की साम्यावस्था शेष की शय्या पर सोते हुए विष्णु का रूप है, वही विष्णु की योगनिद्रा है। सृष्टि के लिये जो बर्हिमुख प्रेरणा है, वही विष्णु की नाभि से बृंहणात्मक तत्त्व या ब्रह्मा का विकास है। ब्रह्मा के सम्मुख रज और तमरूपी मधु कैटभ नामक दानवों का द्वन्द्व, गुण-वैषम्य की प्रचण्ड अवस्था है। लक्ष्मी के द्वारा विष्णु के चरण-संवाहन का सौम्य दृश्य सृष्टि के साथ 'श्री' का संयोग है। इस प्रकार के अर्थशाली विष्णु के कलामय सूत्र के पीछे अर्थों का जैसे पूरा महाभाष्य छिपा हुआ है। जिस स्वर्ण-युग में इन भावों का लोगों को ज्ञान था, एवं दर्शन, साहित्य और कला का आपस में रोचनात्मक सम्बन्ध था, उस युग के शिल्पियों ने देवगढ़ के दशावतार मन्दिर की रथिका में शेषशायी विष्णु के इस स्वरूप का अंकन किया (देवगढ़ के मन्दिर की दीवारों के बाहरी ओर तीन शिलापट्ट हैं। उत्तर की ओर गजेन्द्रमोक्ष, पूर्व की ओर शेषशायी विष्णु और दक्षिण की ओर बदरीवन में नरनारायण की तपश्चर्या अंकित है। संस्कृत में इन्हें 'रथिकायुक्त बिम्ब' कहा है) और उसी युग के महाकवि ने निम्नलिखित श्लोक में उनका साहित्यिक वर्णन किया


नाभिप्ररूढाम्बुरुहासनेन संस्तूयमानः प्रथमेन धात्रा।


अमुं युगान्तोचितयोगनिद्रः संहृस्य लोकान् पुरुषोऽधिशेते॥


-रघुवंश, 13.6 


भारतीय संस्कृति का जो साधना पक्ष है, तप उसका प्राण है। तप का तात्पर्य है तत्त्व के साक्षात् दर्शन करने का सच्चा प्रयत्न । जो कही-सुनी बात हो, उसका स्वयं अनुभव करना तप है। तप हमारी संस्कृति का मेरुदण्ड है। तप की शक्ति के बिना भारतीय संस्कृति में जो कुछ ज्ञान है, वह फीका रह जाता है। तप से ही यहाँ का चिन्तन सशक्त और रसमय बना है।


आगे और-----