परम्परा जल के लिए यज्ञ, गायन व नृत्य की

 जल को जीवन और जीवनदायी माना गया है। जल के लिए वैदिक काल में इन्द्र, पर्जन्य, मरुतादि देवताओं की पूजा- उपासना की जाती थी और प्रकृति के इन देवताओं का आह्वान यज्ञ-अग्निहोत्र सहित गान और नर्तन के साथ किया जाता था। भगवद्गीता के काल तक यह विश्वास पूरी तरह यहाँ प्रचलित और स्थापित था कि अन्न से ही सभी प्राणी होते हैं, अन्न की उत्पत्ति बारिश से होती है, बारिश यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होता है : अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः॥ (गीता, 3.14)। यह मान्यता और यज्ञ-नृत्यपूर्वक जल के लिए मेघों का आह्वान आज भी भारतीय जनजीवन में विद्यमान है। आज भी लोकाञ्चल में महिलाएँ बारिश के लिए कृत्रिम बाँध बनाकर दादुर पूजा करती है और गीतों के साथ नृत्य भी करती हैं। बिजलियों से इन्द्रराज को बारिश के लिए न्यौता जाता है कि वह मेघों के रथ पर सवार होकर मरुत के बल पर गर्जना करता, बिजलियाँ चमकाता हुआ आए और बारिश से पृथिवी को जलमय कर दे : मेंढकी ने पाणी पा, धोबो-धोबो धान गला, इंदरजी ने मोकल ए म्हारी बीजूराणी देस में...। मेघा-मेघा आ जा, पाणिड़ो बरसा जा, पाणी में कूदे मेंढक्यां, चरकल्यां संपड़ाता जा...। और, मेह बाबा आजा, घी ने रोटी खा जा, मेह बाबा मोकळा, ढांकणी में ढोकला...। वैदिक ऋषियों ने चाहा कि हुल से जोती गई भूमि को इन्द्रदेव उत्तम वर्षा से सींचे और सूर्य अपनी रश्मियों से उसकी रक्षा करें अर्थात् वह धूप को निष्प्रभावी रखें- सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पृथक्। धीरा देवेषु सुम्नयौ॥



वेदों में आए आए इन्द्रसूक्त, पर्जन्यसूक्त, मरुतसूक्त में इसी प्रकार की याचनाएँ और कामनाएँ मिलती हैं। इनमें मानव-मन में निहित वे इच्छाएँ हैं कि जिनमें कृषि को सफल करने, अकाल से बचाने, गोधन की समृद्धि और प्रजा की नीरोग-निरामयता के भाव मिलते हैं। नृत्य, नाट्य की प्रस्तुतियों के पहले जिन नान्दी-वचनों का गान होता है, उनमें भी ये ही कामनाएँ प्राप्त होती हैं। इनके लिए जल को अत्यावश्यक माना गया है जिसे वैदिक साहित्य में आप, नीर, जल, रस, अमृत आदि कहा गया है। जल को सृष्टि-चक्र के लिए जरूरी ही नहीं, अति अनिवार्य तत्त्व माना गया है। यह पाँच प्रधान तत्त्वों में शुमार किया गया है। जल से संबंधित देवी-देवताओं का आह्वान, पूजा-अर्चना के श्लोक एवं शास्त्र-गायन बड़ा ही संगीतमय रहा है।


ऋचाओं से वृष्टिकीकामनाएँ


वेदों में अनेक ऋचाएँ हैं जिनका आनुष्ठानिक प्रयोग वृष्टि-प्रदाता सिद्ध होता है। उनमें ऐसे गंभीर अर्थ-बीज भी निहित है जिनमें जलोत्पादक, जलवर्षक और जलाकर्षक सूत्र विद्यमान हो सकते हैं। वैदिक ऋचाएँ आज भी एक पहेली से कम नहीं हैं, क्योंकि उनका दैहिक, दैविक और आध्यात्मिक तापत्रय के निवारण के लिए विविध विधाओं से प्रयोग करने की परिपाटी रही है। आथर्वणपरिशिष्ट और शौनकसूक्त आदि में आए प्रयोग इस बात के साक्षी हैं। 


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