सूक्तियों में जल-प्रबंधन और जल-संरक्षण

संस्कृत के विशालकाय ग्रंथ ‘अपराजितपृच्छा', जिसकी रचना राजस्थान और गुजरात की पृष्ठभूमि को लेकर हुई है, में सर्वप्रथम जल के प्रबंधन पर जोर दिया गया है। ग्रंथ से विदित होता है कि जिस समय बारह-बारह वर्षों के अकाल का दौर रहता था, राजाओं से लेकर सर्वसामान्य तक यह बात प्रचारित की गई कि जिस किसी तरह पानी की बचत की जानी चाहिए। इसके लिए विभिन्न उपायों से जल का समुचित प्रबंधन भी किया जाना अपेक्षित है। अपराजित का प्रश्न है कि यदि समयोचित वर्षा न हो, निस्सार वर्षा हो, अवृष्टि और अनावृष्टि हो अथवा स्वल्प वृष्टि हो, तब वहाँ के लोग कैसे रहेंगे? वहाँ सुख कैसे होगा? लोग सुखी कैसे होंगे गाती और राजा भी सुखी कैसे हो सकता है? वहाँ धन- ये हो गया है, ताँध धान्य की निष्पत्ति कैसे हो


यदा मेघा न वर्षन्ति काले वा फल्गुवर्षणम्।


अनावृष्टौ स्वल्पवृष्टौ कथं लोका भवन्ति ते॥


कथं प्रवर्तते राष्ट्रं सुखिनश्च नृपाः कथम्।


क कथं च धान्यनिष्पत्तिर्धनादिसुखिनो जनाः॥


अपराजित के प्रश्न पर विश्वकर्मा कहते हैं कि जल की बचत और संरक्षण के लिए किया गया सवाल एक प्रकार से अकाल के निवारण के लिए की गई जिज्ञासा है।



दुर्भिक्ष-निवारण का उपायः कम वर्षावाले क्षेत्रों में ऐसे शस्य, धान्यादि की बुवाई करनी चाहिए जो अल्पवृष्टि में भी अंकुरित होकर बढ़ सके। इस उपाय से वहाँ दुर्भिक्ष कभी भी नहीं पड़ सकता है


यच्छस्यानि प्ररोहन्ति स्वल्पवृष्टौ च पुत्रक।


दुर्भिक्षं न भवेत्तत्र यदुपायेऽपराजित॥


जिन प्रदेशों के लोग खेती के लिए जहाँ कहीं भी जल-संग्रह करने में सजग और तत्पर रहेंगे, वहाँ भी धान्यों के उपजने में सुविधा होगी; क्योंकि जलाशयों के बाँधने से धान्य जल्दी-जल्दी अंकुरित होकर वृद्धि को प्राप्त होते हैं


उत्पद्यते यतः शस्यं नराणां जलसङ्ग्रहात्।


जलाशये बन्धिते च क्षिप्रं शस्यं प्ररोहति॥


सजग रहकर यदि श्रमपूर्वक कतिपय महानदियों या अन्य नदियों के किनारों पर और कुओं के जल से खेती की जाए, तो आठ-आठ, कुल सोलहों प्रकार के धान्यों (विष्णुपुराण के अनुसार ब्रीहि (धान), यव (जौ), गोधूम (गेहूँ), अणव (छोटे धान्य), तिल, प्रियङ् (काँगणी), उदार (ज्वार),कोरदूष (कोदो), सतौनक (उनालू ग्वार या छोटी मटर), माष (उड़द), मुग (मूंग), मसूर, निष्पाव (बड़ी मटर), कुलुत्थ (कुलथ), आढक्य (अरहर), चणक (चना) और सन (सण)- ये सत्रह प्रकार की ग्राम्य औषधिवर्ग में हैं। जिनमें से सन को छोड़कर सब खाद्याहार हैं) की खेती करना सम्भव हो सकता है


केचिन्महानदीतीरे केचिच्च सरिदाश्रये।


केचित्कूपोदके वत्स अष्टाष्टौ शस्यसम्भवाः॥


आगे और----