आदि शंकराचार्य

‘आदि शंकराचार्य संस्कृत-भाषा की 1983 ई. में बनी इसी नाम की फ़िल्म का हिंदी-संस्करण है। आदि शंकराचार्य की इस बायोपिक फ़िल्म में उनके बचपन से लेकर 32 वर्ष की अल्पायु तक की महत्त्वपूर्ण घटनाओं को समेटने का सराहनीय प्रयास किया गया है। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम द्वारा निर्मित इस फ़िल्म में निर्देशक, पटकथाकार और अभिनेता जी.वी. अय्यर (1917-2003) ने व्यावसायिक पक्ष की अनदेखी कर कहानी पर गहन शोध और परिश्रम कर आचार्य शंकर के विविध रूपों की विस्तृत व्याख्या करने में अपनी भरपूर क्षमता का उपयोग किया है। आदि शंकराचार्य ने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करते हुए सनातन हिंदू-धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ करने का ऐतिहासिक कार्य किया। वे अपने अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त के कारण इतिहास में अमर हैं। आचार्य शंकर ने बुद्धि, भाव और कर्म के संतुलन पर बल दिया। वे ज्ञान को अद्वैत ज्ञान की परम साधना मानते हैं, क्योंकि ज्ञान समस्त कर्मों को जलाकर भस्म कर देता है। वे सृष्टि की उत्पत्ति का मूल कारण ‘ब्रह्मा' को मानते हैं। वेदान्तिक साधना ही समग्र साधना है।


जगद्रु आदि शंकराचार्य का जन्म वैशाख शुक्ल पञ्चमी, सन् 788 तथा निधन 820 ई. में माना जाता है। इसके विपरीत उनके समकालीन राजा सुधन्वा के ताम्रपत्राभिलेख में उनका समय 509- 477 ई.पू. माना गया है। इसके अनुसार 2017 ई. में आदि शंकराचार्य का 2526वीं जयन्ती पड़ती है। इस फ़िल्म में उनका जन्म आठवीं शताब्दी में बताया गया है।



आदि शंकराचार्य के महान् व्यक्तित्व में धर्म-सुधारक, समाजसुधारक, दार्शनिक, कवि, साहित्यकार, योगी, भक्त, गुरु, कर्मनिष्ठ, विभिन्न सम्प्रदायों एवं मतों के समन्वयकर्ता जैसे रूप समाहित थे। वे जन-कल्याण की भावना से ओतप्रोत थे। उनका महान् व्यक्तित्व सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करनेवाला था। उन्होंने शास्त्रीय ज्ञान की प्राप्ति के साथ ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया था। उनके व्यक्तित्व में अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद और निर्गुण ब्रह्म के साथ सगुण-साकार की भक्ति की धाराएँ समाहित थीं। ‘जीव ही ब्रह्म है, अन्य नहीं' पर जोर देनेवाले आदि शंकराचार्य ने ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या का उद्घोष किया। अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने अपने अकाट्य तर्क से शैव, शाक्त और वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त कर पञ्चदेवोपासना का मार्ग दिखाया। कुछ विद्वान् शंकराचार्य पर बौद्ध शून्यवाद का प्रभाव देखते हैं। आचार्य शंकर में मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव मानकर उनको ‘प्रच्छन्न बुद्ध' कहा गया। आचार्य शंकर के उपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं।


फ़िल्म के प्रारम्भ में नदी किनारे गायत्री महामंत्र का वाचन हृदयस्पर्शी है। जैन और बौद्ध-मंत्रों का घोष भी सुनाई पड़ता है। नदी से जल लेकर आती स्त्री जैसे स्वाभाविक दृश्य हैं। गुरुकुल का मनमोहक दृश्य है। पहले की शिक्षा गुरुकुल-पद्धति पर आधारित थी जहाँ बच्चों के व्यक्तित्व का समग्र विकास होता था। बच्चे गुरु की शरण में शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरुकुल-परिसर में पूजा-पाठ का दृश्य, तुलसी के पौधों में जल डालने जैसे दृश्य प्रकृति के संग पर्यावरण-संरक्षण का प्रतीक हैं। परमात्मा सम्पूर्ण विश्व का जन्मदाता है, वह निराकार है और ओंकार से पहचाना जाता है। गुरुकुल में शिक्षा, दीक्षा और संस्कार का अच्छा चित्रण किया गया है। बालक शंकर के पिता शिवगुरु (भारत भूषण) तथा आर्यम्बा (एल.वी. शारदा राव) का अभिनय अच्छा, स्वाभाविक, प्रभावी और सुन्दर है। गुरुकुल में पढ़ाई के अलावा छात्र भिक्षाटन भी करते हैं। पिता शंकर को अपने पास बुलाते हैं। पिता कहते हैं- अंत की और जा रहे हैं। शरीर नाशवान् है। बेटे, मृत्यु को मुत्यु मानना चाहिए। उसे अपना दोस्त (मित्र) समझो। आकाश से गिरा हुआ पानी जैसे समुद्र की और चला जाता है उसी प्रकार देवों को किया हुआ नमस्कार परमेश्वर को पहुँचता है। शंकर के पिता प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करते हैं। शंकर की माँ रोकर विलाप करती है। शिवगुरु का दाह-संस्कार होता है। अतीत, वर्तमान और भविष्य- सब प्रभु के अधीन है। गुरुकुल में गायत्रीमहामंत्र और वेद की ऋचाओं का पाठ किया जाता है। यह शरीर नाशवान् है, अंत की ओर जा रहा हूँ- पिता की ऐसी सहज और अति गंभीर बातों का बालक शंकर के मन, मस्तिष्क और हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उसे पिता की यह बात बार-बार याद आती है। शंकर की बाल्यावस्था का बेहतरीन चित्रण किया गया है। वृक्ष के नीचे आचार्य से शिक्षा पाने का दृश्य भी अच्छा है। प्राचीन गुरुकुल शिक्षा-पद्धति का प्रभावी फ़िल्मांकन फिल्म की खास विशेषता है। लगभग 2 घंटे 34 मिनट की फ़िल्म में 40 मिनट का समय गुरुकुल पर केन्द्रित किया गया है। यह दर्शकों को गुरुकुल-व्यवस्था की विशेषताओं, उपयोगिता और प्रासंगिकता पर चिन्तन-मनन करने के लिए प्रेरित करता है। वर्तमान में लोग कंप्यूटर पर आश्रित हो रहे हैं। इससे लाभ और हानि- दोनों है। मनुष्य के दिमाग ने ही कंप्यूटर का आविष्कार किया है। गुरुकुल में श्रवण- विद्या से लाखों पृष्ठ की सामग्रियाँ का स्मरण कराया जाता था। छात्रों को यह कण्ठस्थ रहता था। वैज्ञानिकों के अनुसार मानव-मस्तिष्क में कम-से-कम चार अरब पृष्ठों की समग्रियों को स्मरण रखने की क्षमता है। इसका उदाहरण आचार्य शंकराचार्य जैसे सैकड़ों मनीषी हैं। वर्तमान में अहमदाबाद (गुजरात) में स्थित गुरुकुल में छात्रों को वैदिक रीति से शिक्षा प्रदान कर व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास करवाया जाता है। बालक शंकर के मित्र ज्ञान शर्मा और मृत्यु हैं। शंकर को ज्ञात हैकि ज्ञान और मुत्यु- दोनों के शरीर नहीं होते। अतीत, वर्तमान और भविष्य पर नियंत्रण करनेवाले भगवान् तीसरी आँख से देखते रहते हैं।


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