अध्यात्मविज्ञानी : दूरदर्शी एवं सक्षम नेता

विज्ञान की विभिन्न शाखाओं द्वारा ‘तर्कसंगतता तथा विश्लेषणा- त्मकता' पर अधिक आग्रह के कारण लोगों की मानसिकता ‘प्रकृति- विरोधी' बन गई है। तार्किक विचारधारा एकांगी होने के कारण पर्यावरण-संबंधी आवश्यकताओं की उपेक्षा कर सकती है। पर्यावरण-संबंधी आवश्यकताओं को केवल कुछ लोग ही समझ सकते हैं, जिनके मस्तिष्क में दूरदर्शिता का गुण होता है। सतही तार्किकता मानव को वाञ्छित प्रसन्नता नहीं दे सकती। मोती ढूँढ़ने के लिए गहरी डुबकी लगानी पड़ती है।


पर्यावरण के प्रति जागृति लाने तथा इसके प्रति समादर की भावना जगाना केवल तभी संभव है जब मानव यह मान लेगा कि वह संपूर्ण सृष्टि का एक अंग है, एक स्वतंत्र इकाई नहीं और उसे सृष्टि के नियमों के अन्तर्गत ही जीवन-शक्ति प्राप्त होती है।


ऐसा प्रतीत होता है कि वैज्ञानिकों एवं दार्शनिकों के द्वारा जो विचार-पद्धतियाँ विकसित एवं प्रस्तुत की जा रही हैं, उनमें मतैक्य नहीं है, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न असन्तुलित मानसिकताएँ निर्माण हो रही हैं। उस असन्तुलित मानसिकता की उपज है 'स्वतंत्रता की गलत धारणा। समाज का प्रत्येक व्यक्ति यह मानकर व्यवहार कर रहा है कि वह कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है। वह यह सोचने को तैयार ही नहीं कि यह स्वतंत्रता कुछ बंधनों के साथ ही मिली है। विचार एवं क्रियाओं की स्वतंत्रता वैश्विक नियमों अथवा प्राकृतिक नियमों के बंधन में है।



प्रकृति के नियम अत्यंत स्पष्ट एवं पारदर्शी हैं। नियम यह है कि व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है, परन्तु उसके कर्मों का फल (परिणाम) निर्धारित नियमों के अनुसार । ही मिलेगा। अर्थात् शुभ कर्मों से प्रसन्नता एवं अशुभ कर्मों से दुःख एवं क्लेश ही प्राप्त होंगे। मानव को यह अनुभूति हो जानी चाहिए कि परमात्मा द्वारा दी गई स्वतंत्रता इस दृष्टि से सीमित है कि अस्थिर मानसिकता में भटकनेवाले स्त्री/पुरुषों को अपनी मानसिकता को स्थिर किए बिना शान्तिरूपी अमृत प्राप्त नहीं होगा। उन्हें अपनी आत्मा से ही मार्गदर्शन प्राप्त करना होगा। अध्यात्मविज्ञानियों से यही अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसी परिस्थितियाँ निर्माण करें जिनसे ऐसा वातावरण बने कि सम्पूर्ण समाज अध्यात्म के द्वारा दिखाए मार्ग को अपनाने के लिए तैयार हो जाए व भटकाव का मार्ग छोड़ दे।


यद्यपि अध्यात्मविज्ञानी बहिर्मुखी होकर कार्य करते प्रतीत होते हैं, तथापि वास्तव में वे अन्तर्मुखी होकर आत्मा के मार्गदर्शन में काम करते हैं। वे शरीर, मन, मस्तिष्क से आत्मा को श्रेयस्कर मानते हैं। पदार्थ के गहन खोज-कार्य में लगे वैज्ञानिकों के कार्य का गहन अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि वैज्ञानिक अब अनुभव करने लगे हैं कि उनका खोज-कार्य आत्मिक क्षेत्र की दृष्टि से बहुत कम है। वे अनुभव कर रहे हैं कि आइन्स्टीन के सिद्धान्तों में, क्वांटम सिद्धान्त में, अथवा भोर के आणविक सिद्धान्त में पाया गया कि समस्त ब्रह्माण्ड को नियंत्रण में रखने के लिए विशेष व्यवस्था उपलब्ध है। इस व्यवस्था को आँकड़ों के सिद्धान्त पर परखने से निष्कर्ष निकलता है कि विज्ञान की शाखाएँ इस विचार को मानने लगी हैं कि सभी गतिविधियों में एक वैश्विक स्तर पर अन्तर्संबंध स्थापित है, वह संबंध है सम्पूर्ण विश्व का अन्तर्संबंध, सृष्टि की सभी रचनाओं में परस्पर संबंध तथा यह परस्पर संबंध परमात्मा के द्वारा स्थापित किया जाता है तथा संचालित भी किया जाता है।


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