सैन्यविज्ञान शिक्षा केन्द्र : श्रीद्रोणाचार्य-गुरुकुल

भारतवर्ष की पुण्य धरा के लिए एक कथन नितान्त सुप्रसिद्ध हैवीरभोग्या वसुन्धरा अर्थात् वीरप्रसू इस पृथ्वीमण्डल का भोग केवल वीरपुरुषों के लिए है, सांसारिक भौतिक चाकचक्य में संलिप्त कायर पुरुषों के लिए कथमपि नहीं है। देश, काल तथा परिस्थिति के अनुसार समाज, राज्य एवं राष्ट्र को अपनी सम्प्रभुता के संरक्षण के लिए जिस सुरक्षा-उपक्रम की परम आवश्यकता होती थी, तत्कालीन गुरुकुलों का यह मौलिक दायित्व होता था कि वे युवा वर्ग को तदनुकूल ज्ञान-विज्ञान से प्रशिक्षित कर आदर्श नागरिक का निर्माण करें। विगत द्वापर युग तथा वर्तमान कलियुग के सन्धिकाल में घटित महाभारत-युद्ध के पूर्व ही भविष्य में घटित होनेवाली इस महाविनाशकारी युद्ध-सम्बन्धी विभीषिका को भवितव्य जानकर गुरु द्रोणाचार्य ने अपने गुरुकुल में सैन्यविज्ञान-सम्बन्धी धनुर्वेद तथा शस्त्रास्त्र सञ्चालन-विद्या का अभ्यास कराना प्रारम्भ कर दिया था। परिणामस्वरूप उन्होंने गाण्डीवधारी अर्जुन सदृश विश्वविख्यात धनुर्धर शिष्य का निर्माण किया। सम्प्रति हम अपने चरितनायक गुरु द्रोणाचार्य के सैन्यविज्ञान के क्षेत्र में दिए गए अवदान के सम्बन्ध में सुधी पाठक वर्ग कोअवगत कराने का सविनय प्रयास करते हैं।



भगवान् कृष्णद्वैपायन वेदव्यास-विरचित महाभारत नामक ग्रन्थरत्न, जो कि भारतीय सनातन-धर्म एवं संस्कृति का आकरग्रन्थ है, में गुरु द्रोणाचार्य का पुष्कल चरित्र एवं कर्तव्य विस्तारपूर्वक वार्णित है। परीक्षित- पुत्र जनमेजय ने महर्षि वैशम्पायन से द्रोण की उत्पत्ति तथा उनके आत्मज अश्वत्थामा की कथा सुनाने का अनुरोध किया। वैशम्पायन ने कहा- गद्वार निवासी असिगोत्रीय महर्षि भरद्वाज ने एक दिन घृताची नामक अप्सरा को स्नान करके नदीतट पर खड़ी होकर वस्त्र बदलते हुए देखा। उस नवयौवना परम-सुन्दरी को उस अवस्था में देखकर भरद्वाज ऋषि के मन में कामवासना जाग्रत हो जाने से उनका वीर्य स्खलित हो गया। उस वीर्य को ऋषि ने द्रोण (यज्ञकलश) में रख दिया। उसी द्रोण से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वह द्रोण के नाम से विश्वविख्यात हुआ


ततः समभवद् द्रोण:कलशे तस्य धीमतः। अध्यगीष्ट स वेदाङ्गानि च सर्वशः॥


-महाभारत, आदिपर्व, 129.38 


कुशाग्रबुद्धि द्रोण ने सम्पूर्ण वेदों और वेदांगों का विधिवत् अध्ययन करके ज्ञानर्जन किया। आपके पिता महर्षि भरद्वाज स्वयं शस्त्रास्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। उन्होंने अग्निवेश को आग्नेयास्त्रों की शिक्षा दी थी। उन्हीं चाचा अग्निवेश ने द्रोण को आग्नेयास्त्रों की शिक्षा दी थी। उन्हीं दिनों महाराज पृषत को भी द्रुपद नामक पुत्र प्राप्त हुआ। द्रुपद प्रतिदिन भरद्वाज के आश्रम में आकर द्रोण के साथ खेलता था। इस प्रकार महर्षिकुमार द्रोण और राजकुमार द्रुपद विद्याराधन करने लगे। कुछ दिनों बाद भरद्वाज के स्वर्गवासी हो जाने पर द्रोण ने पितरों की प्रेरणा से सन्तानोत्पन्न करने के लिए शरद्वान् की पुत्री तथा कृपाचार्य की भागिनी कृपी से विवाह करके अश्वत्थामा नामक पुत्र प्राप्त किया


शारद्वतीं ततो भार्यां कृपी द्रोणोऽन्वविन्दत। अग्निहोत्रे च धर्मे च दमे च सततं स्ताम्। अलभद् गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमेव च॥


-वही, आदिपर्व, 129.46-47


द्रोण अपने आश्रम में रहकर धनुर्वेद का अभ्यास करने लगे। एक दिन द्रोण ने सुना कि परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान करना चाहते हैं। अतः द्रोण भार्गव परशुराम से धनुर्वेद और सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने तथा नीतिशास्त्र की भी शिक्षा ग्रहण करने का निश्चय करके अपने शिष्यवृन्द के साथ प्रस्थित हुए। महेन्द्र पर्वत पर पहुँचकर द्रोण ने परशुराम के समीप जाकर अपना नाम बतलाया तथा कहा कि मेरा जन्म पवित्र अंगिरस कुल में हुआ है। उस समय तक भृगुवर परशुराम अपना समग्र सुवर्णादि धन ब्राह्मणों को तथा पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर चुके थे, अतः उन्होंने द्रोण को अपना शरीर एवम् अस्त्र-शस्त्र विद्या देने का प्रस्ताव किया। परिणामस्वरूप द्रोण श्रीपरशुराम से धनुर्वेद तथा दिव्यास्त्र ज्ञान प्राप्त करके कृत्कृत्य हो गये और पुनः अपने मित्र उत्तरपाञ्चालनरेश द्रुपद के पास वापस लौट आये


तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रादादस्त्राणि भार्गवः। सरहस्यव्रतं चैव धनुर्वेदमशेषतः॥ प्रतिगृह्य तु तत्सर्वं कृतास्त्रो द्विजसत्तमः । प्रियं सखायं सुप्रीतो जगाम द्रुपदं प्रति॥


-वही, आदिपर्व, 129.66-67


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