अंग्रेजों से पूर्व भारत में शिक्षा का स्तर

हमारे देश में अंग्रेजों के आने से पर्व शिक्षा का स्तर बहुत अच्छा था। में धर्मपालजी ने अपने एक ग्रंथ ‘द ब्यूटीफुल ट्री' में देश की शिक्षा के विस्तार, विकास और शोध करके जो लिखा है, वह निश्चय ही हमें गौरवान्वित करता है।


धर्मपालजी की दो पुस्तकों का मैं उल्लेख करूंगा, जो ब्रिटिश रिकॉर्ड पर आधारित हैं। एक तो है 'द ब्यूटीफुल ट्री'। गाँधीजी ने जब कहा था, अंग्रेजों के आने से पहले भारत में जो शिक्षा थी, वह बाद में घटी है तो सर जॉन फिलिप ने चैलेंज किया था, इसके आधार पर वे आँकड़े बाद में फिर प्रकाशित हुए। उस समय की सुंदरलालजी की पुस्तक 'भारत में अंग्रेजी राज' में एक अध्याय है- ‘भारतीय शिक्षा का सर्वनाश' । धर्मपालजी ने जो पुस्तक छापी है, उसमें वे पूरे आँकड़े हैं, जो यह बताते हैं कि 18वीं शताब्दी में भारतीय शिक्षा का ढाँचा क्या था, कैसे पढ़ाई होती थी और उसमें खुद ब्रिटिश अधिकारियों के द्वारा एकत्रित आँकड़े हैं, जिसमें यह स्पष्ट है कि शिक्षक किस-किस जाति के होते थे। आप लोगों को यदि पुस्तक मिले, तो अवश्य पढे; क्योंकि उसमें लिखा है कि सभी जातियों के शिक्षक हैं और सब जातियों के विद्यार्थी हैं। इन आँकड़ों का कुछ-न-कुछ आधार तो अवश्य है। उसको भी दिमाग में लाना चाहिए कि सचमुच यह शिक्षा और साइस एंड टेक्नोलॉजी कहाँ तक पहुँची हुई थी। 18वीं शताब्दी में वे सब तथ्य वर्णित हैं, उसमें चीरा लगाने का, चेचक के टीके का, इस्पात बनाने का, अगरिया लुहारों आदि सबका वर्णन है, नाई चेचक के टीके लगाते थे। ऐसी विविध जातियाँ हैं जो विभिन्न कौशलों में निपुण हैं, जैसे- रंग बनाना, कागज़ बनाना, बारूद बनाना, आदि-आदि। इन सबके जानकार लोग, बिना इस तथाकथित यूरोपीय ढाँचे को जाने भी, बड़े पैमाने पर विद्यमान थे। इसका मतलब है कि ज्ञान के और भी रूप हैं, जिनके आधार पर स्वदेशी कौशल और हुनर के संयोजन करनेवाली स्वदेशी शिक्षा तय की जाए।



विलियम एडम ने अपने प्रथम विवरण में लिखा है कि सन् 1830-40 के वर्षों में बंगाल और बिहार के गाँवों में 1,00,000 के लगभग पाठशालाएँ थीं। यह कथन वैसे तो उच्च अंग्रेज अधिकारी तथा उससे संबंधित अन्य लोगों के अनुमान पर आधारित लगता है, क्योंकि इस कथन के लिए कोई अधिकृत प्रमाण प्राप्त नहीं होता। मद्रास प्रांत के लिए भी ऐसा ही अभिमत टॉमस मुनरो ने व्यक्त किया था। उसने बताया था कि यहाँ प्रत्येक गाँव में एक पाठशाला थी। इसी प्रकार बम्बई प्रेसीडेंसी के जी.एल. ऐंटरगास्ट नामक वरिष्ठ अधिकारी ने लिखा है, ‘गाँव बड़ा हो या छोटा, यहाँ शायद ही ऐसा कोई गाँव होगा, जहाँ कम-से-कम एक पाठशाला न हो। बड़े गाँवों में तो एक से अधिक पाठशालाएँ भी थीं। इसी प्रकार, पंजाब प्रेसीडेंसी में भी सन् 1850 के दौरान शिक्षा का व्यापक अधिकार था, ऐसा डॉ. जी.डब्ल्यू. लिटनर ने भी लिखा है।


इन सर्वेक्षणों से प्राप्त जानकारी से यह स्पष्ट होता है कि सन् 1900 में भारत में शल्य-शिक्षा प्राप्त करनेवाले का अनुपात इंग्लैण्ड के छात्रों की तुलना में कम नहीं था। यही नहीं, अंग्रेजों की गुलामी के कारण से भारत कंगाल बन गया था, तो भी भारत में शिक्षा का प्रसार, शिक्षा-पद्धति, पाठ्क्रम आदि की गुणवत्ता और व्यापकता इंग्लैण्ड से अधिक थी। विशेष महत्त्वपूर्ण बात तो यह थी कि भारत में सैकड़ों वर्षों से प्रचलित शल्य शिक्षा-पद्धति के ही अनुसार इंग्लैंड में भी उसी पद्धति से शिक्षा देने का प्रयास हुआ था। विकटतम परिस्थितियों में भी, पाठशालाओं में छात्रों की उपस्थिति का अनुपात इंग्लैंड की पाठशालाओं की उपेक्षा विशेष प्रसन्न और नैसर्गिक था। साथ ही, भारत के शिक्षक इंग्लैंड के शिक्षकों की अपेक्षा विशेष आत्मीयता और निष्ठा से काम करते थे।


श्री धर्मपालजी ने 18वीं शताब्दी में भारतीय शिक्षा के आधार को रमणीय वृक्ष कहा था और महात्मा गाँधीजी ने आगे आगे चलकर इंग्लैण्ड में जाकर यह चुनौती दी थी आपने इस रमणीय वृक्ष की जड़ें काट दी हैं और हमारी शिक्षा के स्वरूप को बिगाड़ दिया है।


ब्रिटिश राज से पहले भारत इतना साक्षर था। ब्रिटिश राज के कारण उस साक्षरता में कमी आई, यहाँ विशेषज्ञ बनाने की प्रक्रिया भी अंग्रेजों के आने से नष्ट हुई और धीरे-धीरे हम अपने देश के परंपरागत जीवन-मूल्यों, जीवनधाराओं से तो विमुख हुए ही, साथ ही अपनी क्षमताओं से भी परे चले गए।


हमारे प्राचीन उत्पादनकर्ता हमारे देश का जो सामान्य कारीगर था, हमारे देश का जो सामान्य उपकरण- निर्माता था और हमारे देश का जो उत्पादकर्ता था, वह बहुत अच्छा उत्पादन कर रहा था। 18वीं शताब्दी में हिंदुस्तान में जितना लोहा पैदा होता था, वह समूचे यूरोप और इंग्लैड में निर्मित लोहे से चार गुणा अधिक था और गुणवत्ता भी बहुत अच्छा था। जो अंग्रेज इंजीनियर यहाँ आए, खासतौर पर जब उन्हें रेल की पटरियाँ बिछाने के लिए, कहाँ-कहाँ लोहा अच्छा मिलता है, इसका अध्ययन करने के लिए बताया गया तो उन्होंने कहा कि भारत में उत्कृष्ट कोटि का लोहा मिलता है। मगर अंग्रेजों ने इस पर बल दिया कि वे इस लोहे का उपयोग नहीं करेंगे और इंग्लैड से लोहा भारत को आयात करना होगा, उसी से रेल की पटरियाँ बनेंगी और हजारों लोग जो इस्पात बनाने के काम में, लोहा बनाने में काम में लगे हुए थे, वे तो बेरोजगार हुए ही, साथ-ही-साथ लोहा बनाने की एक बहुत ही सस्ती प्रणाली भी हमारे देश से लुप्त हो गई। उस समय हम एक रुपए बारह आने में एक मन लोहा पैदा कर रहे थे। देश का कपड़ा संसार में निर्यात होता था। ढाके की मलमल इंग्लैण्ड की महारानी तथा सुंदरियाँ बड़े चाव से पहनती थीं। अंग्रेजों ने ढाका की मलमल बनानेवाले कारीगरों के अँगूठे कटवा दिए और भारत में कपड़े की दस्तकारी को समाप्त करा दिया।


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