छात्रों में चरित्र-निर्माण की आवश्यकता

शिक्षा-जगत् का अधिष्ठाता आचार्य या गुरु है। एक समय था, जब ' गुरु गौरवशाली, ब्रह्मज्ञानी, त्यागी, तपस्वी और समाज-संचालक थे। उस समय वे सर्वाधिकारी होकर दिव्य गुणों के आधार पर स्वतन्त्र विचरण करते थे। भारतीय संस्कृति के पोषक गुरु अपने जीवन में शिष्य से3 पुत्र से पराजय चाहते हैं- पुत्राच्छिष्यात् पराजयम्। इसी गरिमा के कारण वे वन्दनीय, महनीय और गोविन्द से भी उच्चतर थे। उन्हें गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः कहकर सम्मानित किया जाता था। पर आज वरतन्तु, समर्थ गुरु रामदास, मुनि सांदीपनि, गर्गाचार्य अदि की कल्पनामात्र शेष है। शिक्षा-जगत् के प्रहरी मानो सुप्त हैं।


शिक्षा-जगत् की आधारशिला है- विद्यार्थी। उसका मन, उसकी बुद्धि बड़ी कोमल और स्वच्छ होती है। माता-पिता पहले उसके चरित्र-निर्माण के लिये विज्ञ आचार्यों के पास भेजते थे। वहीं उसके हृदय में स्वर्णिम रश्मियाँ उदय होती थीं। वह आचार्यदेवो भव का पालनकर संयम, समता, संतोष, स्वाध्याय को परम निधि समझता था। वृद्धों की सेवा और गुरुजनों की प्रणति से आयु, विद्या, यश और ब्रह्मबल की वृद्धि से ‘सादा जीवन उच्च विचार’ उसके व्यक्तित्व में साकार हो उठता था। उपनिषद प्रमाण हैं- तद्विज्ञानार्थं सः गुरुमेवाभिसंगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्। उसे यहाँ आत्मदर्शन भी होता था- आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः। 



गुरु के आश्रम अरण्य में थे। राजा लोग तन-मन-धन-अन्न से उनकी सेवा करते थे। विद्यार्थी समाज के अन्न से पलता और राष्ट्र से संरक्षण पाता था। वह समाज और राष्ट्र का ऋणी था। आजीवन समाजसेवा, राष्ट्र-संरक्षण ही उसका चिन्तन था। वह अपने लिए नहीं, परार्थ के लिये जीवित था। विद्यार्थी का एक सार्थक नाम छात्र है। छात्र शब्द छत्र से बना है। छत्र (छाता) वर्षा-आने पर रक्षा करता है। विद्यार्थी भी गुरु के दोषों को आच्छादित कर समाज और राष्ट्र की छत्रवत् सेवा करता था। वह स्वयं आपत्तियों को झेलता, जलता और मरता, पर दूसरों की अहर्निश सेवा करता था। वह वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः का प्रतीक था। अतः राम, कृष्ण, एकलव्य, उपमन्यु, कौत्स, गाँधी-जैसे उच्चादर्श छात्र इतिहास के रत्न बन गये। पर आज शिक्षा का आधार पूर्णतः डाँवाडोल है। विद्या विवेक की जननी है। मनुष्य का सर्वोत्तम आभूषण विद्या का सौरभ है- विनय। विनय की परिणति है- पात्रता, योग्यता। उससे धन, धन से धर्म और धर्म से प्राप्त होता है आन्तरिक सुख। विद्या के बिना मनुष्य पशु है। वह आत्मस्वरूप से विमुख रहता है। मानव-जीवन में विद्या सर्वोपरि है। ऋषियों ने पद-पद पर कहा है सा विद्या या विमुक्तये, विद्ययामृतमश्नुते।


आगे और----