गुरुकुल भारतीय शिक्षा परम्परा की अमूल्य देन

शिक्षा  का तात्पर्य प्रकाश से होता है, वैसा प्रकाश जो व्यक्ति और " समाज को चमत्कृत कर दे। यदि व्यक्ति में अन्तर्दृष्टि का विकास नहीं हुआ और उसे अन्तज्योति की उपलब्धि नहीं हुई, तो वह मूर्ख ही है। क्रियावान् पुरुष ही सच्चे अर्थों में शिक्षित है। अतः शिक्षा जहाँ हमें अन्तज्योति, अन्तर्ज्ञान और संस्कार प्रदान करती है, वहाँ उसका उद्देश्य है कि हम इस योग्य बनें कि एक सम्मानित नागरिक के समान आत्मनिर्भर होकर जीवन-यापन कर सकें। शिक्षा का उद्देश्य हमें जीने योग्य बनाना ही नहीं बल्कि जीविका कमाने योग्य भी बनाना है। अतः शिक्षा अन्तज्योति और शक्ति का स्रोत मानी जाती है जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक शक्तियों के सन्तुलन विकास से हमारे स्वभाव में परिर्वतन करती है तथा उसे श्रेष्ठ बनाती है।



शिक्षा समुदाय या व्यक्ति द्वारा परिचालित वह सामाजिक प्रक्रिया है जो समाज को उसके द्वारा स्वीकृत मूल्यों और मान्यताओं की ओर अग्रसर करती है। सांस्कृतिक विकास की उपलब्धि एवं जीवन के ज्ञान का अर्जन शिक्षा द्वारा ही होता है। जीवन समस्याओं की खोज, आध्यात्मिकताओं की छीनबीन एवं मानसिक क्षुधा की तृप्ति के साधन, कला- कौशल का परिज्ञान शिक्षा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। शिक्षा वैयक्तिक जीवन के परिष्कार का कार्य तो करती ही है, साथ ही समाज को भी उन्नत बनाती है। अपने विभिन्न क्षेत्रों में अर्जित थाती को सँजोए रखने के लिए शिक्षा की आवश्यकता प्रत्येक समाज समाज को पड़ती है। प्राचीन भारत में भी सभ्यता और संस्कृति की रक्षा के लिए गुरुकुल शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य थी।


जब हम प्राचीन भारतीय इतिहास का अनुशीलन करते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि ऋग्वैदिक काल में आज के समान विश्वविद्यालय अथवा पाठशाला की प्रथा नहीं थी। इस काल में पुत्र-पुत्रियों की शिक्षा घरों में ही होती थी। कभी-कभी लोग विशेष शिक्षा के लिए गुरुओं के पास उपनयन-संस्कार की समाप्ति के बाद भेजा करते थे। इस संस्कार के बाद ही बालक की शिक्षा का प्रारंभ गृहत्याग कर गुरु के सान्निध्य में उनके गृह, जो प्रायः वनों में ही होते थे, होता था। उपनयन-संस्कार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यतीनों वर्गों के लिए आवश्यक था जिनकी अवस्था क्रमशः 8 से 10, 11 और 12 वर्ष निश्चित की गई थी। ये बालक द्विज कहे जाते थे जो अपने परिवार से दूर गुरु के पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजे जाते थे तथा गुरुकुल में रहकर विभिन्न विषयों की शिक्षा ग्रहण करते थे। (विष्णुपुराण, 3.10.12)।


पारस्करगृह्यसूत्र (2.20) में यह कहा गया है कि आचार्य के सम्मुख जब विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण के लिए उपस्थित होता था, तब आचार्य उससे प्रश्न करता था- कस्य ब्रह्मचार्यसीति । भवत इत्युच्यमान इन्द्रस्य ब्रह्मचार्यस्यग्निरा-चार्यस्तवासाविति। अर्थात् तुम किसके ब्रह्मचारी हो? इस प्रश्न के उत्तर में विद्यार्थी कहता है कि आपका ही ब्रह्मचारी हूँ। तब आचार्य कहता है नहीं, तुम इन्द्र के ब्रह्मचारी हो, पहले अग्नि तुम्हारा आचार्य है, बाद में हम। फिर विद्यार्थी का दायाँ हाथ ग्रहण कर उसे शिष्य के रूप में स्वीकार करते हुए कहता है- मैं सविता की आज्ञा से तुम्हें शिष्य के रूप में स्वीकार कर रहा हूँ और तब विद्यार्थी के हृदय पर अपना हाथ रखकर आचार्य यह कहता है कि तुम्हारे और हमारे बीच सर्वदा प्रेम और विश्वास रहे। (हिरण्यकेशीगृह्यसूत्र 1.20.4)।


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