गुरुकुल-व्यवस्था की ओर लौटते विश्वविद्यालय

गुरुकुल का आशय है वह स्थान या क्षेत्र, जहाँ गुरु का कुल यानि परिवार निवास करता है। प्राचीन भारत में शिक्षक ही गुरु माना जाता था और उसका परिवार उसके यहाँ शिक्षा ग्रहण करनेवाले विद्यार्थियों से ही पूर्ण माना जाता था। जब किसी बालक के पहले गुरु का प्रश्न आया, तो यहाँ की परंपरा ने कहा कि माँ किसी भी नवजात की पहली शिक्षिका है, उसके बाद पिता का स्थान तथा तीसरे स्थान पर उस स्त्री या पुरुष को रखा गया, जो कि बालक को उसके सम्पूर्ण जीवन को जीने के लिए मार्गदर्शन देता तथा उसे भावी जीवन की कठिनाइयों से संघर्ष करने व जीवन की सम्पूर्ण जटिलताओं से मुक्त रहते हुए आनन्दमय जीवन जीने की शिक्षा देता है। इसीलिए उपनिषदों में लिखा गया : मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव।


यही कारण है कि प्राचीन भारत के सम्पूर्ण वाङ्मय से लेकर अधुनातन तक में हमें इस गुरुकुल-व्यवस्था के दिग्दर्शन होते हैं। गुरु की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए यहाँ तक कह दिया गया है कि गुरुर्ब्रह्माः गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरु साक्षात्परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरुवे नमः। अर्थात्, गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान् शंकर है, गुरु ही साक्षात् परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ। गुरु की महिमा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिसे इस ब्रह्माण्ड का कारण और नियन्ता माना जाता है, उसके समकक्ष गुरु को स्थान दिया गया है। इस गुरुकुल-व्यवस्था की परम्परा हमें बताती है कि देश में शिक्षाप्रणाली की यह व्यवस्था कितनी अधिक श्रेष्ठ थी जिसमें शिक्षा के स्तर पर अमीर गरीब का कोई भेद नहीं। श्रीकृष्ण और बलराम सांदीपनी गुरुकुल में उस ब्राह्मण बालक सुदामा के साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं, जिसके पास कोई पारिवारिक संपत्ति नहीं होती। ऐसे एक नहीं, अनेक अनुपम उदाहरण गुरुकुल शिक्षा-पद्धति में दिखाई देते हैं।


स्त्री और पुरुषों की समान शिक्षा को लेकर यह गुरुकुल कितने अधिक सक्रिय थे, इसके भी कई उदाहरण हैं। उत्तररामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढ़नेवाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख हुआ है जो इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि सह-शिक्षा का प्रचार भारत में प्राचीन काल से रहा है। इसी प्रकार मालतीमाधव में भी भवभूति ने भूरिवसु एवं देवराट के साथ कामन्दकी नामक स्त्री के एक ही पाठशाला में शिक्षा प्राप्त करने का वर्णन किया है। भवभूति आठवीं शताब्दी के कवि हैं। भवभूति के समय भी बालक-बालिकाओं की सह- शिक्षा का प्रचलन अवश्य था। इसी प्रकार पुराणों में कहोद और सुजाता, रूहु और प्रमदवरा की कथाएँ वर्णित हैं। इनसे ज्ञात होता है कि कन्याएँ बालकों के साथ-साथ पाठशालाओं में पढ़ती थीं तथा उनका विवाह युवती हो जाने पर होता था। ये प्रमाण इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि प्राचीन काल में स्त्रियाँ बिना पर्दे के पुरुषों के बीच रहकर ज्ञान की प्राप्ति कर सकती थीं। उस युग में सहशिक्षा-प्रणाली का अस्तित्व भी इनसे सिद्ध होता है। गुरुकुलों में सह-शिक्षा का प्रचार था, इस धारणा का समर्थन आश्वलायनगृह्यसूत्र में वर्णित समावर्तन-संस्कार की विधि से भी मिलता है। इस विधि में स्नातक के अनुलेपनक्रिया के वर्णन में बालक एवं बालिका का समार्वतन-संस्कार साथ-साथ सम्पन्न होना पाया जाता है।


ऋग्वेद में एक मंत्र है, जो कि यजुर्वेद में कर्मकाण्ड-विषय के अंतर्गत पुरुषसूक्त में भी आया है- ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहु राजन्यः कृतः। उरु तदस्य यद्वैश्यः पदभ्याम् शूद्रो अजायत। इस मंत्र के दो अर्थ बताए जाते हैं। पहला यह कि ब्राह्मण यज्ञ करने के लिए, क्षत्रिय युद्ध के लिए, वैश्य व्यापार के लिए और शूद्र सेवा-कार्य के लिए हैं। किंतु वहीं ऋग्वेद में एक स्थान पर एक व्यक्ति कहता है कि मैं एक कवि हँ, मेरे पिता वैद्य हैं, मेरी माता चक्की चलाती हैं। भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम साथ-साथ रहते हैं, जैसे पशु अपने बाड़े में। यहाँ तात्पर्य यह है कि भले ही एक परिवार में रहनेवाले सदस्यों की रुचि अलग हो सकती है, फिर भी वह एकसाथ रहते हैं। अर्थात, यही बात किसी समाज पर लागू होती है। उपर्युक्त मंत्र का दूसरा अर्थ लगाया जाता है कि ब्रह्मा का मुख है ब्राह्मण, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, उदर भाग वैश्य तथा ईश्वर के पैर शूद्र हैं यानि कि इन वर्गों की उत्पत्ति ब्रह्मा के उक्त शरीर के स्थानों से हुई है। एक बार को यह बात मान भी लें, तो स्पष्ट हो जाता है कि भारत की प्राचीन परम्परा तथा ज्ञान का चिन्तन कितना अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि भारतीय ज्ञान-परम्परा में समाज के सेवक को सबसे ऊँचा स्थान दिया गया है। हिंदू-परंपरा में हमारे यहाँ जिन्हें सम्मान दिया जाता है, उनके पैर छूने का विधान है। जिस मस्तक को ब्राह्मण कहा गया है, वह पैरों में यानि शरीर की सेवा करनेवाले शूद्र के लिए सदा झुका रहता है। इसीलिए प्राचीन गुरुकुल में वनों में रहनेवाले, राजा के पुत्र या धनिक वर्ग अथवा समान्य व गरीब के बच्चे एक समान, एक पद्धति से बिना किसी भेदभाव के शिक्षा ग्रहण करते दिखाई देते हैं।


किंतु जब देश में अंग्रेजी राज आया और लॉर्ड मैकाले ने बाबू बनानेवाली तथा अंग्रेज़-भक्त भारतीयों के निर्माण के लिए आधुनिक शिक्षा के नाम पर अपनी वैचारिकी परोसने का काम किया, साथ में योजनाबद्ध गुरुकुलों का नाश किया। उस समय गुरुकुल शिक्षा-पद्धति का मखौल उड़ाते हुए अंग्रेज़-परस्त और कम्युनिष्ट मित्र बढ़-चढ़कर आगे आए थे। लेकिन अब उन्होंने भी जान लिया कि आधुनिकता के नाम पर दी जानेवाली अंग्रेजी शिक्षा से योग्य और उत्तम पीढ़ियाँ नहीं बनाई जा सकती हैं। बिना संस्कार जोड़े श्रेष्ठ संततियों का निर्माण नहीं होता है। चलो देर से ही सही, देश के अंग्रेजी पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग को यह बात समझ में तो आयी। भारतीय चिन्तन से प्रेरित बौद्धिक वर्ग तो कब से यह मांग कर रहा है कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में गुरुकुल-जैसी श्रेष्ठ परम्परा को जोड़ने के प्रयास शुरू किए जायें।


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