गुरुकुलीन शिक्षा-पद्धति

भारतीय परम्परा ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ मानती रही है। इसके द्वारा न केवल व्यवहार का समुचित सञ्चालन होता रहा है अपितु इसके माध्यम से इहलौकिक और पारलौकिक निधियों की भी सम्प्राप्ति की गई है। शिक्षा (एजुकेशन) आज भले ही अध्ययन (स्टडी) के लिए प्रयुक्त हो रहा है, किन्तु प्राचीन काल के ऋषियों ने स्वरादि प्रक्रियाओं के शुद्ध उच्चारणादि से सम्बन्धित वेदांग को शिक्षा कहा था- स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते या सा शिक्षा। भारतीय शिक्षा के यदि प्राचीन स्वरूप को देखा जाय, तो जीवन के सम्पूर्ण तथा सम्यकतया विकास के लिए इस शिक्षा का प्रणयन किया गया था। अनुस्वार, हलन्त और विसर्गादि के अशुद्ध उच्चारण, समाज के लिए स्वीकृत न थे। शतायु जीवन के लिए चार आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम) अनिवार्य थे। प्रत्येक आश्रम के लिए आयु तक निर्धारित थी। इन आश्रम-व्यवस्थाओं ने ही समाज की अनेक समस्या का स्वयमेव निराकरण कर दिया था। इनमें से प्राथमिक आश्रम, जीवन-प्रासाद की नींव,ब्रह्मचर्याश्रम ही गुरुकुल में व्यतीत होता था। उपनयन का अर्थ होता है गुरु के समीप बटुक को लेकर जाना। बटुक जीवन में आनेवाले अनेक झंझावातों से निपटने के लिए यहीं पर अभ्यास करता था। शस्त्रं शास्त्रं समाचरेत् अर्थात् शस्त्र और शास्त्र- दोनों का समान रूप से प्रयोग करना है इसकी शिक्षा यहाँ दी जाती थी। अध्ययन- समाप्ति के पश्चात् दीक्षान्त-समारोह होता था और तब वह गृहस्थाश्रम में प्रवेश करताथा। यह समझा जाता था कि चतुर्विध पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) की मूलाधारिणी शिक्षा न केवल गुरुओं की गुरु है अपितु इससे विहीन मानव इस पृथिवी पर भारसदृश साक्षात् पशु है। शिक्षा के इसी महत्त्व का अवलोकन करते हुए भारतीय परम्परा में इसका सूक्ष्मतया विवेचन करते हुए चतुर्दश विद्याओं अथवा अष्टादश विद्याओं और चौसठ कलाओं का अध्ययन किया जाता था। तदनुसार श्रुति-परम्परा को सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। शिष्य अपने गुरु से श्रवण करता था और उसका सम्यक उच्चारण करता था। यह भी कहा जाता था कि यदि पुस्तकस्थ विद्या है तो वह दूसरे के हस्त में स्थापित धन के समान है, जो आपत्ति काल में आपका साथ नहीं दे सकती। यह परम्परा अनवरत विद्यमान थी। विद्यार्थी के लिए निम्नलिखित लक्षण ग्राह्य थे



काकचेष्टा वकोध्यानं श्वान्निद्रा तथैव च । अल्पाहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम्॥ 


काक (कौआ)-जैसी चेष्टा विद्यार्थी में जिज्ञासा उत्पन्न करती थी। वक (बगुला)जैसा ध्यान शिष्य में शिक्षा के प्रति एकाग्रता का द्योतक था। श्वान (कुत्ता)-जैसी निद्रा आलस्य की परिहारिका एवं शीघ्रता की परिचायिका थी। अल्प आहार का ग्रहण भी आलस्य का अपवारण करने के लिए ही कहा गया था। विद्यार्थी के लक्षण में गृहत्यागी का समावेश इसलिए हुआ क्योंकि गृहस्थ माता-पिता का स्नेह विद्यार्थी के समुचित अध्ययन का बाधक था। चूंकि उसे सम्पूर्ण जीवन का निर्वाह करना था, अतः उसे जीवन के दुःखों का अनुभव कराने के लिए भिक्षाटन करवाया जाता था, जो वह अपने गृह पर रहकर नहीं कर सकता था। अतः उसका गृहत्याग भी आवश्यक ही था। शिष्य को अपनी अधिकारिता भी प्रदर्शित करनी पड़ती थी। यह विद्यार्थी के अध्ययन के प्रति समर्पण के लिये अपरिहार्य था। न केवल शिष्य के ही अपितु गुरु के लिए भी कर्तव्य निर्धारित थे। तदनुसार विद्यार्थी के सम्पूर्ण मानसिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए गुरु ही उत्तरदायी होता था। गुरु के साथ ही शिष्य को रहना था और इस प्रकार उसके दैनिक जीवन के एक-एक क्रियाकलापों का गुरु सूक्ष्मतया अवलोकन करके उसकी अशुद्धियों को दूर करते थे। गुरुकुल के भोजनादि, स्वच्छतादि की व्यवस्था गुरु-शिष्य की सहभागिता से सम्पादित होती थी। गुरुकुल के परिचालन में समाज और राजा का पूर्णरूपेण सहयोग था। इस प्रकार भारतीय सभ्यता में व्याप्त गुरुकुल के परिवेश, उसकी शिक्षा एवं उसके द्वारा प्रतिपादित कर्तव्य के आधार पर ही भारत विश्व में जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठित था।


गुरुकुलीन शिक्षा-पद्धति शिष्य के मौखिक उच्चारण पर निर्भर करती थी, किन्तु आज विद्यार्थी जितना अधिक प्रतिशत अङ्क प्राप्त करता है, वह उतना ही ज्ञानवान् माना जाता है। गुरुकुलीन पद्धति मौखिक उच्चारण को प्राथमिकता प्रदान करती है तो पाश्चात्य पद्धति लिखित परम्परा को महत्त्व देती है। आज हमारी वर्तमान शिक्षा-पद्धति भी लॉर्ड मैकॉले द्वारा निर्मित लिखित-परम्परा पर ही आधारित है जिससे भारतीय परम्परा का वास्तविक ह्रास हो रहा है। आज गुरुकुलों की संख्या भी अत्यल्प है। और जो हैं उनपर भी सरकार का ध्यान अत्यल्प है। आज अधिकांशतः आज छात्र के जीवन में उतरती तो हैलेकिन उसे मशीन (यन्त्र) बना देती है। अब विद्यार्थी को शीघ्रातिशीघ्र पैसा कमाना होता है। इसके चक्कर में सारे सम्बन्ध और सारी नैतिकता उसके जीवन से हवा हो जाती है। जिस भारतवर्ष में सर्वाधिक प्रसन्नता का वातावरण था, उसे आज कॉमेडी नाइट्स को देखने के बाद हँसी आती है। आज के अर्थप्रधान युग में बच्चे की फीस से उस स्कूल (विद्यालय), कॉलेज (महाविद्यालय) या उस कोर्स (पाठ्यक्रम) का महत्त्व बताया जाता है न कि ज्ञान से। आज चर्च के पादरियों के उपाधियों को हमारे यहाँ बड़े ही आदर के साथ असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर कहा जाता है। आज यदि ‘इकोनॉमिक्स', 'मैथमेटिक्स', ‘साइंस', ‘सोशल साइंस' कोई कहे, तो वह धर्मनिरपेक्ष माना जाता है, किन्तु यदि उसने ‘धर्मशास्त्र' या 'अर्थशास्त्र' शब्द कहा तो वह साम्प्रदायिक समझा जाता है। जिस भारत में विश्व के सर्वप्रथम विश्वविद्यालय का सृजन हुआ और उसका क्रूरतम संहार इस तथाकथित बौद्धिक विश्व ने भी अपने इतिहास में अपने हिसाब से प्रस्तुत किया है, उस भारत के विषय में यह कहना कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत ने आज उच्च शिक्षा जगत् में 100 वर्ष (हण्डेड ईयर ऑफ हाइयर एजुकेशन इन इण्डिया) पूरे कर लिए हैं। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि वेदों में 30 ऋषिकाओं से सम्बन्धित सूक्तों के बाद भी कहा जा रहा है कि भारत में प्रथम महिला महाविद्यालय 19वीं शताब्दी में प्रारम्भ हुआ। आज हमने भारत के इतिहास और उसके अतीत को यदि ठीक से नहीं समझा, तो वह दिन दूर नहीं जब हम अपने अतीत के विषय में जाननेसमझनेवालों को पूरी तरह से खो देंगे।


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