गुरुकुलीय शिक्षा-व्यवस्था सिखाएगी वास्तविक जीवन जीने की कला

पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में भौतिकवाद व उपभोक्तावाद की ओर बढ़ता मानव, मानवीय मशीन बनता जा रहा है जो मानवीय गुणों से रहित अर्थ की टकसाल के रूप में प्रतिबिम्बित हो रहा है। ज्ञान और कौशल शिक्षा के दो अलग-अलग आयाम हैं, जिनका अर्थ समझे बिना शिक्षा-व्यवस्था की समीक्षा, व्याख्या करना बेईमानी है।


वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में ज्ञान का सागर अथाह उपलब्ध है। शिक्षार्थी बड़ी बड़ी पोथियों व तकनीक का उपयोग कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का ज्ञान प्राप्त करने में लगा हुआ है। उसने पीछे क्या छोड़ा, क्या पाया, इससे वह अनभिज्ञ है। प्यार, स्नेह, त्याग, परोपकार, सहयोग एवं संवेदनाओं से सरोकार ही नहीं रहा।



आगे बढ़ने की चाह में सत्यवादिता, ईमानदारी-जैसे शब्द जीवन के शब्दकोश में नहीं हैं। अपनी मंजिल पाने के बाद जब वह पीछे मुड़कर देखता है, तो वह खुद को नितान्त अकेला पाता है। उसके जीवन में शान्ति, सुकून के दो पल समय की आँधी में हवा हो चुके होते हैं। परिवार टूटते जा रहे हैं और जो सम्बन्ध पति-पत्नी व बच्चों के बचे भी हैं, वे भावनाविहीन स्वार्थ के सम्बन्ध हैं, जिनमें संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं है। इन सबके मूल में वर्तमान शिक्षा प्रणाली ही है।


हमारी मनोवृत्ति का निर्माण, हमारे जीवन, हमारे आचरण के अनुरूप ही होता है। हमारे जीवन तथा अचारण का मूलाधार हमारी परवरिश व हमारी शिक्षा है, हमारे प्रदत्त संस्कार हैं। किस प्रकार के बीज रोपित किए गए हैं, उस पर वृक्षरूपी जीवन की गुणवत्ता निर्भर होती है। कहा गया है- जैसा खाएँगे अन्न, वैसा बने मन। यहाँ अन्न से तात्पर्य संस्काररूपी भोजन से है।


अतः यह सिद्ध होता है कि आजकल मानव समाज में जो तरह-तरह के छोटे बड़े दोष दिखाई पड़ते हैं, यथा- भ्रष्टाचार, भटकाव, दुराचार, जातिवाद, क्षेत्रवाद, अलगाव, आतंकवाद, चोरी (विचारों की, अर्थ की), या राष्ट्रीय-सामाजिक समस्याएँ- इन सभी की जननी हमारी वर्तमान दोषपूर्ण शिक्षा-पद्धति है।


शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए राष्ट्रीय व प्रादेशिक- दोनों स्तर पर दिन-प्रतिदिन नये- नये प्रयोग हो रहे हैं, नयी-नयी योजनाएँ बन रही हैं। सम्पूर्ण राष्ट्र को शिक्षित करने के लिए हर स्तर पर अथक प्रयास हो रहे हैं, पर विचार यह करना है कि हमारी शिक्षा प्रणाली कैसी है? और वह किस प्रकार के जीवन का निर्माण कर रही है? क्या हमारे चरित्र का निर्माण हो रहा है? क्या हम स्वस्थ समाज का निर्माण कर पा रहे हैं? क्या वर्तमान शिक्षा जीवन जीने की कला सिखा, जीवन नैया को भवसागर से पार लगाने में समर्थ है? नहीं। कहा भी गया हैसा विद्या या विमुक्तये।


शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए हमें गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति पर विचार करना होगा। स्वामी दयानन्द सरस्वती-विरचित सत्यार्थ प्रकाश के अनुसार सभ्यता, धर्मात्मता, जीतेन्द्रियतादि का विकास होना एवं अविद्यादि दोषों का छूटना ही शिक्षा है। गुरुकुलीय शिक्षाव्यवस्था में विद्यार्थी जातिवाद के दंश, गरीबी-अमीरी की खाई से दूर, राजा और रंक के साथ भेदरहित, समान व्यवहार, खानपान, वस्त्रादि से पोषित होते थे जिससे वास्तविक साम्यवाद परिलक्षित होता था। बाहर से नैतिक गुणों को सिखाया नहीं जाता था, बल्कि गुरुकुल में ऐसी गतिविधियाँ उत्पन्न की जाती थीं कि शिक्षार्थी में नैतिक व सामाजिक गुणों का समावेश स्वतः हो जाता था।


विद्यार्थी गुरुकुल में रहते हुए 64 कलाओं के माध्यम से जीवनयापन के लिए विभिन्न कौशल अर्जित करता था। समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी योग्यतानुसार कार्य में संलिप्त रहता था। गुरुकुल में बालक आन्तरिक स्वरूप को सुधारकर, विचार-शक्ति को शुद्ध कर अभ्युदय और निःश्रेयस् को प्राप्त करता था। समाज में स्वाभाविक समाजवाद लाने, विश्व-बंधुत्व की भावना के लिए, वास्तविक अर्थों में मानव निर्मित करने के लिए तथा गौरवमयी जीवन-यापन के लिए गुरुकुलीय शिक्षा-पद्धति को अपनाना ही सही समाधान है। वर्तमान समय की समस्त विकट समस्यारूप तमःपुंज को ध्वस्त करने का एकमात्र प्रकाश भारतीय गुरुकुलीय व्यवस्था में निहित है जो व्यक्ति को जीवन जीने की कला से परिचित कराती है।