महाकाल की नगरी में गुरुकुल की गौरवशाली परम्पराएँ

शिक्षा से अमृतत्व की उपलब्धि होती है। इस शास्त्रीय तत्त्व को हृदय में रखनेवाले महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी चार पुरुषार्थ को अधिगत करने के लिए अपने अनुष्ठानों से पूर्व शिक्षा पर विशेष बल दिया और इसीकारण उन्होंने हमारे देश में प्राचीन काल से शिक्षा-परम्परा को विकसित करने हेतु गुरुकुलों की स्थापना कर भारतीय शिक्षा और संस्कृति के विविध आयामों की रक्षा तथा प्रसार हेतु ऐसे योग्यतम और आदर्श शिष्य तैयार किये, जिन्होंने समय की धार को परिवर्तित करने के आयाम स्थापित किये।



प्राचीन शिक्षा-परम्परा के आलोक में यदि भारत देश की संस्कृति को जानने का प्रयास किया जाये, तो हमें पुराणों और शिक्षा-ग्रन्थों के आधार पर तक्षशिला, नालन्दा, विक्रमशिला, काशी और महाकाल की नगरी उज्जयिनी में शैक्षिक गुरुकुल की परम्परा की तथ्यपूर्ण जानकारी मिलती है। महाकाल की इस नगरी में महाभारतयुगीन महर्षि सांदीपनि का गुरुकुल था जहाँ देश-देशान्तरों से विद्याध्ययन हेतु अनेक विद्यार्थी आया करते थे। तक्षशिला और नालन्दा शिक्षापीठ की भाँति उज्जयिनी भी ज्ञानविज्ञान, ज्योतिष, शिक्षा और संस्कृति की संगम-स्थली के रूप में जगद्विख्यात थी। उज्जयिनी के प्रख्यात पुरातत्त्ववेत्ता डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने सगर्व यह रेखांकित किया है कि महर्षि सांदीपनि का गुरुकुल उस युग में शिक्षा के आलोक के लिए प्रख्यात था और महर्षि सांदीपनि की वंश-परम्परा में उज्जयिनी के प्रख्यात ज्योतिषाचार्य पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास (1902-1976) थे। विष्णुपुराण के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण की बुआ राजाधिदेवी उज्जयिनी की राजमाता थीं और वे यहाँ के राजा जयत्सेन को ब्याही थीं। विद्वानों का मानना है कि संभवतः इसीलिये श्रीकृष्ण अपने अग्रज बलराम के साथ महाकाल की इस नगरी में स्थित महर्षि सांदीपनि के गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने आए होंगे। परन्तु बाद में इसी बुआ की पुत्री मित्रविन्दा से जब कृष्ण ने विवाह किया, तब मित्रविन्दा के दोनों भाइयों- क्रमशः राजकुमार विन्द और अनुविन्द ने कृष्ण के प्रतिरोधस्वरूप महाभारत-युद्ध के दौरान कौरव सेना के पक्ष में युद्ध किया था। इस युद्ध में उन्हीं के हाथी ‘अश्वत्थामा' के मारे जाने की घोषणा (अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो) से भ्रमित हो गुरु द्रोणाचार्य को अपने प्राण गॅवाने पड़े थे।


विद्वान् नाथूशंकर शुक्ल के अनुसार उज्जयिनी के नरेश जयत्सेन ने ही संभवतः प्रजाहित में शिक्षा उत्थान हेतु यहाँ महर्षि सांदीपनि के गुरुकुल की स्थापना की होगी। गर्गसंहिता से लेकर भागवत आदि पुराणों में उल्लेख मिलता है कि इसी गुरुकुल में शिक्षा हेतु विन्द, अनुविन्द, मित्रविन्द, प्रद्युम्न, वज्रनाभ के अतिरिक्त श्रीकृष्ण व बलराम ने यहाँ महर्षि सांदीपनि के सान्निध्य में शिक्षा प्राप्त की तथा यहीं पर उनकी मित्रता गुजरात (पोरबन्दर) निवासी सुदामा से हुई थी। वे कृष्ण के इस गुरुकुल में प्रवेश पाने के पूर्व से ही अध्ययनरत थे। सुदामा की सच्ची भक्ति और संतोषी मनोविज्ञान को देखकर उन्हें कृष्ण ने अपना परम सखा बनाया था। दोनों मित्रों की यही मित्रता संसार की एक ऐसी मिसाल बनी जिसका उदात्त उदाहरण आज भी दिया जाता है। कृष्ण इस गुरुकुल में 12 वर्ष की आयु में अपने यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात् आए थे। उन्होंने अपने भ्राता तथा सखा सुदामा के साथ इस गुरुकुल में समस्त कलाओं और विद्याओं की शिक्षा प्राप्त की। इस गुरुकुल में श्रीकृष्ण व बलराम ने महर्षि से सर्वप्रथम अंकगणना सीखी थी। तब वे अंकों को पट्टियों पर लिखकर फिर गुरुकुल के जिस जलवाले स्थल पर (कुण्ड में) धोकर मिटाते थे, उसका नाम ‘अंकपात हुआ। यह स्थल आज भी सांदीपनि आश्रम में ‘अंकपात कुण्ड' के नाम से प्रत्यक्ष है। इसी विश्वास और श्रद्धा को धारण कर आज भी अनेक माता-पिता अपने शिशुओं की शिक्षा में ज्ञान की वृद्धि के लिए उनके नन्हें हाथों से पट्टियों पर अंक लिखवाकर इस कुण्ड में धुलवाते हैं।


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