नालन्दा विश्वविख्यात प्राचीन शिक्षा-केन्द्र

समग्र विश्व के शिक्षा-केन्द्रों में प्राचीन भारत के नालन्दा के महाविहार का स्थान सर्वोपरि था। नालन्दा के ऐतिहासिक अवशेष बिहार प्रदेश की राजधानी पटना (प्राचीन पाटलिपुत्र) से प्रायः 80 किमी. दक्षिण-पूर्व में बड़गाँव नामक ग्राम के सुविस्तृत क्षेत्र में विद्यमान हैं। नालन्दा का उल्लेख बौद्ध तथा जैन-ग्रन्थों में अनेक बार आया है। ईसा से पाँचवीं-छठी शताब्दी पूर्व बुद्ध तथा महावीर के समय में यह एक महत्त्वपूर्ण नगर था। पाली बौद्ध- ग्रन्थों से पता चलता है कि मगध की राजधानी राजगृह से एक योजन उत्तर- पश्चिम नालन्दा नामक एक समृद्ध, संपन्न तथा बहुजनाकीर्ण' नगर था। (दीघनिकाय, भाग 1, पृ. 183, नालन्दा-संस्करण) । यहीं के एक सेठ-परिवार ने बुद्ध के निवासस्थान के लिए अपना आम्रवन दान में दे दिया था (वही, भाग 2, पृ. 66-67)। पाली-ग्रन्थों में अनेक बार भगवान् बुद्ध का राजगृह से नालन्दा आने का उल्लेख मिलता है।


‘नालन्दा' शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में डॉ. हीरानन्द शास्त्री ने कहा है, नालं ददातीति नालन्दा अथवा न अलं ददातीति नालन्दा, अर्थात् जहाँ कमल के नाल पाए जाएँ अथवा जो प्रचुर कमल दे सके।' आज भी यह सत्य है कि नालन्दा के आस- पास बड़ी-बड़ी रम्य पुष्करणियाँ हैं, जो कमल के नालों से भरी हैं। सातवीं शताब्दी का प्रसिद्ध चीनी-यात्री ह्वेनसांग जब यहाँ आया था, तब यहाँ के लोग इस स्थान का नाम यहाँ के तालाब में ‘नालन्दा' नामक एक नाग के होने के कारण बताते थे।



जैन-धर्म में नालन्दा को ‘बाहिरिका' कहा कहा गया है। यह स्थान इतना महत्त्वपूर्ण था कि जैन-धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी ने 14 वर्षावास यहीं बिताया। कल्पसूत्र के अनुसार नालन्दा में सैकड़ों जैन-मन्दिर विद्यमान थे। भगवान् बुद्ध के प्रधान शिष्य सारिपुत्र का जन्म नालन्दा के पास ही नालक नामक ग्राम में हुआ था। ऐसा वर्णन आता है कि जब सारिपुत्र का अन्तिम समय आया, तो नालक ग्राम में आकर उन्होंने अपनी माँ को धर्मोपदेश दिया और उसी कोठरी में निर्वाण प्राप्त किया, जिसमें उनका जन्म हुआ था (संयुक्तनिकाय, भाग 4)। उस स्थान पर बौद्ध-श्रद्धालु भिक्षुओं एवं उपासकों के लिए सारिपुत्र की स्मृति में एक चैत्य का निर्माण हुआ। चीनी-यात्री ह्वेनसांग ने उल्लेख किया है कि मगध के पाँच सौ व्यापारियों ने दस कोटि स्वर्णमुद्राओं का दानकर यहाँ एक विस्तृत भू-भाग खरीदा था। तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ ने लिखा है कि सम्राट् अशोक ने भी यहाँ आकर सारिपुत्र के चैत्य की पूजा की थी। वहाँ उनके लिए उसने एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण भी कराया था। इस सारिपुत्र चैत्य के इर्द-गिर्द जो भिक्षु-विहार बने थे, वे ही कालान्तर में शिक्षा के केन्द्र हो गये।


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