प्राचीन गुरुकुल-पद्धति और शिक्षा के सटोकाट

साप्रथमा संस्कृति विश्ववारा अर्थात् यही (भारतीय) संस्कृति विश्व के लोगों द्वारा अपनाई प्राचीनतम और सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है। विश्व इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में विश्व के दृश्य पटल पर यदि किसी देश की संस्कृति ने पूर्णता एवं दिव्यता के साथ-साथ सामाजिक, वैज्ञानिक, दार्शनिक, आर्थिक समृद्धि एवं सांस्कृतिक-नैतिक श्रेष्ठता को प्राप्त किया था, तो वह था भारत। जहाँ काल के गर्भ में यूनान, रोम, सीरिया, बेबीलोन की संस्कृतियों ने बिखरकर दम तोड़ दिया, वहीं भारतीय संस्कृति एकमात्र संस्कृति है। जो समय के प्रवाहों के समक्ष अडिग खड़ी रही। जिसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को चार हजार वर्षों से भी अधिक समय तक सुरक्षित रखा, उसका प्रचारप्रसार किया और संशोधित किया, वह है। प्राचीन भारत की शिक्षा-व्यवस्था, जिसका शंखनाद मनुस्मृति (2.20) में किया गया



एतद्देशप्रसूतस्य सकाशदग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन पृथिव्यां सर्वमानवाः॥


यही कारण है कि प्राचीन काल में विश्वभर के तमाम जिज्ञासु, ज्ञानपिपासु विदेशियों के कदम बरबस महान्, सांस्कृतिक भूमि भारत की ओर बढ़ आए। इसीलिए अनन्त सदाशिव अल्तेकर (1898-1960) ने अपनी कृति ‘एजुकेशन इन एंशियंट इण्डिया', पृ. 1-2 पर जो लिखा है, वह सत्य ही है कि *Ancient Indian civilization is one of the most interesting and impor- tant civilization of the world if we want to understand it properly, we must study it's system of educa- tion which preserved, propagated and modified it during the course of more than four thousand years'.


वस्तुतः जैसा कि विश्वभर में महानतम विचारकों- प्लेटो, काण्ट, अरस्तु, एच.एस. हार्न, फ्रो बोल, विवेकानन्द, राधाकृष्णन, गाँधी आदि सभी ने माना है कि शिक्षा मात्र सूचना देने या कौशलों का प्रशिक्षण देने तक ही सीमित नहीं वरन् सम्पूर्ण निर्माण, सर्वांगीण विकास का एक प्रभावी माध्यम भी है। हमारे आर्षग्रंथों व ऐतिहासिक अध्ययन से भी यही विदित होता है प्राचीन भारतीय शिक्षा की गुरुकुल-पद्धति न केवल पूरी तरह से वैज्ञानिक प्रक्रिया थीं वरन् आधुनिक शैक्षिक-मनोवैज्ञानिक आधारों, सूत्रों व आदर्शों और प्रतिमानों का भी। उसमें पूरी तर ह समावेश था। प्रसिद्ध अमेरिकी शिक्षाशास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक जॉन डिवी (18591952) ने शिक्षा को एक त्रिभुजी आधार माना है जिसके तीन ध्रुव- विद्यार्थी, अध्यापक व पाठ्यक्रम में परस्पर उचित सामञ्जस्य व अन्तःक्रिया ही शिक्षा के मूल उद्देश्यों की पूर्ति करता है। प्राचीन भारतीय गुरुकुल पद्धति का अध्ययन-विश्लेषण यदि डिवी के सिद्धान्त के आधार पर किया जाए, तब भी वह शत-प्रतिशत सत्य व सटीक बैठती है।


इतना ही नहीं, आधुनिक शैक्षिकमनोवैज्ञानिक आधार पर शिक्षा-प्रक्रिया का लोकप्रिय मॉडल देनेवाले प्रसिद्ध शिक्षामनोवैज्ञानिक बी.एस. ब्लूम (1913- 1999) के मॉडल के अनुसार, शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसमें विद्यार्थी केन्द्र-बिन्दु होता है और शिक्षा के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए सीखने के अनुभवों से गुजरते ह. ए विद्यार्थी और आचार्य के बीच अन्तःक्रिया होती है जिससे विद्यार्थी में व्यवहारगत परिवर्तन परिलक्षित होता है। इसके आधार पर यदि हम प्राचीन भारतीय गुरुकुल-शिक्षा पद्धति की पड़ताल करें, तब भी हम पाते हैं कि यह पद्धति ब्लूम के मॉडल पर शत- प्रतिशत खरी उतरती है, क्योंकि यह पूरी तरह से विद्यार्थी को केन्द्र में रखकर चलती थी और गुरु-शिष्य की अंतरंगता अत्यन्त घनिष्ठ होती थी। इस हेतु हमें प्राचीन भारतीय शैक्षिक सरोकारों एवं गुरुकुल-पद्धति को समझना नितांत आवश्यक है।


आगे और--