रामायण कालीन गुरुकुल

 वैदिक वाङमय, रामायण व अन्य साहित्यिक-ऐतिहासिक ग्रंथों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में भारत की शिक्षा-प्रणाली गुरुकुल-व्यवस्था पर आधारित थी। भारत की संस्कृति के संवर्धन, परिशोधन में इन ऋषि-मुनियों का महान् योगदान है। ये ऋषि-मुनि अधिकतर दार्शनिक आचार्य होते थे और निर्जन वनों में निवास, अध्ययन एवं चिन्तन करते थे। ये मन्त्रद्रष्टा ऋषि अपने तपोबल से अर्जित ज्ञान को लोककल्याण के हेतु स्वयं द्वारा स्थापित गुरुकुलों में अध्यापन कर बाँट देते थे।


इसलिए प्राचीन भारत के गुरुकुल ऋषियों के आश्रमों में पल्ल्लवित हुए जो वनों में स्थित होते थे, जो गाँवों से सन्निकट होते थे। ये गुरुकुल स्वयंसंचालित संस्था होते थे जिनकी अपनी व्यवस्था व नियम-कानून होते थे। कई बार राजा या सामन्त भी इन्हें सहयोग व प्रोत्साहन देते थे, परंतु शिक्षा राज्य के अधीन नहीं होती थी। अतः शिक्षा प्रायः राज्य व राजनीति से मुक्त ही होती थी। भिक्षाटन द्वारा जीवन-यापन की व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करते शिक्षार्थी इन गुरुकुलों व प्रशिक्षणों द्वारा आत्मनिर्भरता की शिक्षा ब्रह्मचारी रहकर प्राप्त करते थे। गुरुकुल में गृहस्थ आचार्य उनका पालनपोषण अपनी संतान की भाँति करते थे। प्राचीन भारत में गुरु के प्रत्यक्ष निरीक्षण में रहकर विद्यार्जन श्रेष्ठ माना जाता था। अतः गुरुकल एक तरह के निःशुल्क छात्रावास ही होते थे। रामायण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस काल के ऐसे कई गुरुकुल ऋषि-मुनियों के संरक्षण में चलते थे जो अत्यन्त प्रसिद्ध थे। रामायणकालीन गुरुकुलों की पड़ताल करने पर उस युग की गुरुकुल-व्यवस्था के समृद्ध व उन्नत रूप को समझा जा सकता है। रामायण के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस काल में प्रसिद्ध ऋषि वाल्मीकि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, भरद्वाज, अत्रि, गौतम आदि थे जिनके गुरुकुल समाज में विशिष्ट स्थान रखते थे।



वाल्मीकि का गुरुकुल


आदिकवि के रूप में लोकप्रिय 'रामायण' के रचयिता ऋषि वाल्मीकि का गुरुकुल प्रसिद्ध था। वाल्मीकीयरामायण (7.93.16, 7.96.18 और 7.11.11) में स्वयं वाल्मीकि ने लिखा है कि वह प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वसिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। प्रचेता का अन्य नाम वरुण भी है। महर्षि कश्यप और अदिति के नवें पुत्र से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। अध्ययन से ज्ञात होता है कि इनके बचपन का नाम रत्नाकर था। अन्य विवरणों में इनका नाम अग्निशर्मा था और इन्हें हर बात उलटकर कहने में रस आता था। ये नागा प्रजाति के थे और दस्यु-कर्म द्वारा अपना जीविकोपार्जन करते थे। बाद में देवर्षि नारद द्वारा दीक्षित होकर ध्यान साधना द्वारा यह सिद्ध हुए। घोर तप के दौरान दीपक व चींटियों द्वारा उनका शरीर वल्मीक बन गया, अतः वह वाल्मीकि कहलाए। बिहार के पश्चिमी चम्पारण जिले में भैसालोटन ग्राम में वाल्मीकि की तपोस्थली थी, जो अब वाल्मीकिनगर कहलाता है। तपसा नदी के तीर पर एक व्याध द्वारा क्रौञ्च पक्षी को मारने पर वाल्मीकि से व्याध हेतु जो शाप उद्गार निकले, वे लौकिक रूप से श्लोक के रूप में जगप्रसिद्ध हैं। इसी छंद में उन्होंने प्रथम महाकाव्य रामायण की रचना की। रामायण के अनुसार सीताजी ने निष्कासन पर अपने वनवास का अन्तिम काल इनके गुरुकुल आश्रम में व्यतीत किया था, वहीं पर लव-कुश का जन्म हुआ। महर्षि वाल्मीकि का गुरुकुल छत्तीसगढ़ के वारंगा की पहाड़ियों के बीच बहनेवाली, वालमदेई नदी के किनारे पर वर्तमान तुरतुरिया गाँव रायपुर में स्थित था। ये आदिवासियों व वनचरों के गुरु थे। सिरपुर के 15 मील के घनघोर वन्य प्रदेश में आज भी मातागढ़ में एक स्थान पर वाल्मीकि आश्रम तथा आश्रम-मार्ग में ही जानकी कुटिया स्थित है। वाल्मीकि गरुकुल गरीबों-दीनहीन वनचरों को सुसभ्य व सुसंस्कृत बनाने का प्राचीन भारतीय प्रथम सराहनीय प्रयास कहा जा सकता है। इस दृष्टि से वाल्मीकि भारत के प्रथम दलितोद्धारक शिक्षक थे।


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