शिक्षा-जगत् में गुणवत्ता और मूल्यांकन

विगत पाँच दशकों में शैक्षणिक संस्थाएँ मशरूम की तरह बढ़ी हैं। ' थोड़े से समय में संस्थाओं की संख्या में वृद्धि हो सकती है, परन्तु उनकी गुणवत्ता के लिए आश्वस्त होना असंभव है। 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने इस बिन्दु को लेकर चिन्ता व्यक्त की थी। आज की परिस्थितियाँ संकेत करती हैं कि चिन्ता करना तथा उस चिन्ता का निराकरण करना दो भिन्न बातें हैं। दोनों को जोड़कर प्रयास किए जाये तो उसका प्रतिफल गुणवत्ता के रूप में मिल सकता है।


आज शिक्षा के स्तर का ग्राफ तेजी से नीचे की ओर झुकता हुआ दिखाई दे रहा है, उसके पीछे शिक्षा की घटती हुई गुणवत्ता है। शिक्षा चाहे प्राथमिक स्तर की हो या उच्च स्तर की, हर स्तर पर गुणवत्ता का प्रश्न है। सतही तौर पर या अन्दरूनी तौर पर, शिक्षा से जुड़ा हर संगठन गुणवत्ता को लेकर सोच में डूबा है। देश की विस्तारित होती हुई जनसंख्या स्वाभाविकसी मांग को जन्म दे रही है कि विद्यालयों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो। विद्यालयों की संख्या में वृद्धि होना कठिन नहीं है। कठिन है उन शिक्षकों का निर्माण जिन्हें प्रशिक्षण के दौरान नये मॉड्यूल शैक्षणिक पैकेजेस, शिक्षण-विधियाँ, नवाचार के साथ भारतीय आर्ष-परम्परा के गुणवत्तायुक्त शिक्षण तथा मूल्यांकन के लिये तैयार करना है। शिक्षक अच्छा अध्यापन कर सकता है, परन्तु क्या वह अधिगमकर्ता (छात्र) का मूल्यांकन भी उसी श्रेष्ठता के साथ कर रहा है? शिक्षक के ये दोनों दायित्व अलग-अलग हैं। दायित्व का निर्वहन हो रहा है अथवा नहीं, यह जानने के लिए शिक्षक के दोनों ही दायित्वों के मूल्यांकन के लिए कुछ मानक तय करने होंगे, ताकि उसके आधार पर शिक्षक का आकलन किया जा सके। आकलन करने के लिए आकलनकर्ता को मानकों व पैरामीटर के आधार पर शिक्षकों के निष्पादन को वस्तुनिष्ठता से देखना होगा, तभी सही मूल्यांकन होगा और यथार्थ में शिक्षक अधिगमकर्ता (छात्र) को ज्ञान का संप्रेषण करने में सफल होगा।



गुणवत्ता का आधार एक रास्ते पर चल निकलने से नहीं होगा, जैसे अच्छा शिक्षण। शिक्षक में गुणवत्ता लाने के लिये टाटा एक्सनैलिटी मैनेजमेंट पर विचारना होगा। इस विचार के क्रियान्वयन व अनुसरण के लिए एक शिक्षक से लेकर असंख्य शिक्षकों को जुड़ना होगा, साथ ही शिक्षा से जुड़े सभी प्रकार के संगठनों को भी विचारना होगा। तब यह पहला उठता हुआ कदम सिद्ध होगा। प्रयास प्रारम्भ होंगे, तब देखना होगा कि संगठन जो भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षण-संस्थाओं का निर्माण कर रहे हैं, उनकी गुणवत्ता किन मानकों के आधार पर है? संस्थाओं में प्रवेश लेनेवाले छात्रों में गुणवत्ता का क्या आधार है? छात्रों को अध्यापन करनेवाले शिक्षकों की गुणवत्ता किन पर आधारित है? शिक्षकों द्वारा किए जा रहे छात्रों का मूल्यांकन किस स्तर तक गुणवत्तापरक है? उपर्युक्त चारों प्रश्न संकेत कर रहे हैं कि गुणवत्ता की स्थापना शैक्षणिक जगत् में तभी हो सकती है जब एक रक्षक, समर्थ और सही मूल्यांकन-प्रक्रिया कीअनुपालना की जाये।


आज एक शिक्षक श्रेष्ठ शिक्षण कर सकता है, पर क्या वह सही मूल्यांकन भी करेगा? इस पर शंका है। शिक्षक छात्र की उत्तर-पुस्तिका में वही भाषा, वही कथन, वही फीगर (चित्र) और परिभाषा देखना चाहता है जो उसने कक्षा में बताए हैं। थोड़ा अलग हटकर लिखनेवाले छात्र का मूल्यांकन बदल जाता है। शिक्षक एक परिधि में बँधे हुए ज्ञान को ही अन्तिम ज्ञान समझता है, इसलिये उसके द्वारा गुणवत्ता की अनदेखी हो जाती है और त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन की प्रस्तुति। शैक्षणिक गुणवत्ता की स्थापना तभी हो पायेगी जब एक ओर छात्र का मूल्यांकन हो, दूसरी ओर शिक्षक के शिक्षण का मूल्यांकन भी हो; क्योंकि शिक्षक के शिक्षण की गुणवत्ता पर छात्र का अधिगम निर्भर करता है, अधिगम के आधार पर छात्र परीक्षा में पुनरूत्पादन करता है, उसी के आधार पर छात्र का मूल्यांकन होता है। पुनरूत्पादन के आधार पर छात्र की स्मरण-शक्ति का आकलन होता है, जो समस्त मूल्यांकन का केवल एक भाग है। शिक्षण अधिगम का अर्थ केवल पाठ्यक्रम की इकाइयों का अध्ययन पूर्ण करना नहीं है। अध्ययन के बाद पाँच, दस या पन्द्रह प्रश्नों के उत्तर पूछकर दायित्व को पूर्ण मानना मूल्यांकन के सन्दर्भ में त्रुटि है। मूल्यांकन की गुणवत्ता तब सिद्ध होती है जब छात्र अधिगम किएगए ज्ञान को यथार्थ परिस्थितियों में सही स्थान पर उपयोग कर पाता है।


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